यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 14
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - स्वराडुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
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वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ꣳ स॒ह।अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्यया॒मृत॑मश्नुते॥१४॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्याम्। च॒। अवि॑द्याम्। च॒। यः। तत्। वेद॑। उ॒भय॑म्। स॒ह ॥ अवि॑द्यया। मृ॒त्युम्। ती॒र्त्वा। वि॒द्यया॑। अ॒मृत॑म्। अ॒श्नु॒ते॒ ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयँ सह । अविद्यया मृत्युन्तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥
स्वर रहित पद पाठ
विद्याम्। च। अविद्याम्। च। यः। तत्। वेद। उभयम्। सह॥ अविद्यया। मृत्युम्। तीर्त्वा। विद्यया। अमृतम्। अश्नुते॥१४॥
मन्त्रार्थ -
(यः) जो मनुष्य (विद्यां च अविद्या च तत्-उभयं सह वेद) ज्ञान और कर्म दोनों को साथ साथ जानता है। वह (विद्या) कर्म से (मृत्यु तीर्त्वा) मृत्यु को तर कर (विद्यया) ज्ञान से (अमृतम्-अश्नुते) अमृत को प्राप्त होता है ॥१४॥
टिप्पणी -
यहां १२ वें मन्त्र में जो अविद्या-कर्म की उपासना से घने अन्धेरे में प्रवेश होता और विद्या- ज्ञान की उपासना से उससे भी अधिक घने अन्धेरे में प्रवेश करना कहा गया है वह अकेले केले के सेवन करने का फल कहा गया है क्योंकि १४वें मन्त्र में दोनों को साथ साथ जानने का फल गिरना नहीं किन्तु मृत्यु को तरना और अमृत को पाना उत्कृष्ट फल बताया है इसके अलग अलग सेवन से उत्कृष्ट फल नहीं मिलता किन्तु गिरना ही होता है । एक मनुष्य केवल कर्म - ज्ञानशून्य कर्म कर रहा है विना सोचे समझे चल रहा है-कहां जाना है क्यों जाना है और किस मार्ग से तथा किन साधनों से जाना चाहिए इत्यादि ज्ञान से रहित हो चला जा रहा है तब निःसन्देह वह घने अन्धकार में प्रवेश करेगा अवश्य ही कहीं न कहीं किसी न किसी दुर्गन्ध स्थान वन जंगल में गर्त में खड में जा गिरता ही है और दूसरा मनुष्य कर्मशून्य ज्ञान में रत है घर में बैठा-बैठा मन मे तर्क वितर्क करता, सोचता ही रहता है कर्म कुछ भी नहीं करता है धीरे धीरे प्रकृति उसके मस्तिष्क को निर्वल निःसत्व बना देती है-सोचते सोचते उसका मस्तिष्क जड बन जाता है चिरकालीन चेतना रहित या उन्मत बन जाता है इस प्रकार यह पहिले से भी अधिक घने अन्धकार में प्रवेश कर जाता है। फल दोनों का भिन्न-भिन्न हैं, अलग अलग सेवन करने पर भी और मिला कर सेवन करने पर भी यह बात १३ वें मन्त्र में कही है १४ वें मन्त्र में फल दोनों का साथ साथ सेवन करने का उठना दर्शाया है कि अविद्या-कर्म के सेवन का फल तो मृत्यु का तरना और विद्याज्ञान के सेवन का फल अमृत का पाना है । यह फल अध्यात्म जीवन के होने से यहां विद्या-ज्ञान भी अध्यात्म ज्ञान - परमात्म ज्ञान है । इस प्रकार अध्यात्म कर्म अष्टाङ्ग योगाभ्यास से मृत्यु को तरना मरण प्रबन्ध बन्धन को तरना और अध्यात्म ज्ञानपरमात्म ज्ञान से अमृत अमर पद-मोक्ष को पाना बनता है ।
अविद्या-न विद्या, विद्या-ज्ञान, पूर्व की भांति ज्ञान से भिन्न ज्ञान जैसा अर्थ हुआ । ज्ञान है आत्मा का गुण "इच्छा द्वेषप्रयत्न सुख दुख ज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम्” (न्याय १।१।१०) ज्ञान का सहयोगी प्रयत्न है लोक में कर्म हुआ । उपनिषद् में भी ज्ञान कर्म का सहयोग दर्शाया है "विद्याकर्मणी समन्वारमेत" (वृहदारण्यक ४।२।३)
विशेष - "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
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