यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 8
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - स्वराड्जगती
स्वरः - निषादः
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स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नावि॒रꣳ शु॒द्धमपा॑पविद्धम्।क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न् व्यदधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः॥८॥
स्वर सहित पद पाठसः। परि॑। अ॒गा॒त्। शु॒क्रम्। अ॒का॒यम्। अ॒व्र॒णम्। अ॒स्ना॒वि॒रम्। शु॒द्धम्। अपा॑पविद्ध॒मित्यपा॑पऽविद्धम् ॥ क॒विः। म॒नी॒षी। प॒रि॒भूरिति॑ परि॒ऽभूः। स्व॒यम्भूरिति॑ स्वय॒म्ऽभूः। या॒था॒त॒थ्य॒त इति॑ याथाऽत॒थ्य॒तः। अर्था॑न्। वि। अ॒द॒धा॒त्। शा॒श्व॒तीभ्यः॑। समा॑भ्यः ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरँ शुद्धमपापविद्धम् । कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठ
सः। परि। अगात्। शुक्रम्। अकायम्। अव्रणम्। अस्नाविरम्। शुद्धम्। अपापविद्धमित्यपापऽविद्धम्॥ कविः। मनीषी। परिभूरिति परिऽभूः। स्वयम्भूरिति स्वयम्ऽभूः। याथातथ्यत इति याथाऽतथ्यतः। अर्थान्। वि। अदधात्। शाश्वतीभ्यः। समाभ्यः॥८॥
मन्त्रार्थ -
(सः-पर्यगात्) वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है- अनन्त है (शुक्रम्) वह ब्रह्म शुभ्र अतुल भासमान है (कायम्) कायरहित नेत्रादि इन्द्रियों के निकायरहित-जीवशरीररहित (अव्रणम्) वणरहित अवकाशरहित अवकाश वाले काष्ठ पाषाण स्वर्ण आदि ठोस धातु एवं पृथिवी चन्द्र सूर्य आदि पिण्ड जैसे व्यक्तिरूप से रहित (अस्नाविरम्) धारारहितधारामय विद्युत् किरण और वायु जैसी जडसत्ता से रहित (शुद्धम्) निर्मल-अनावरण निःसङ्ग (पापविद्धम्) पापसम्पर्क से अलग (कवि:) क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ (मनीषी) मनोवृत्तियों का ज्ञाता (परिभूः) सब पर स्वामित्व रखनेवाला (स्वयम्भूः) स्वयं सत्ता से विराजमान (शाश्वतीभ्यः समाभ्यः) सदा से साथ रहनेवाली जीवरूप प्रजाओं के लिये (अर्थान्) विद्याविषयों तथा जगत्पदार्थों को (याथातथ्यतः) यथावत्ठीक-ठीक (व्यदधात्) प्रकाश करता तथा रचता है ॥८॥
विशेष - "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
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