यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 12
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषयः
देवता - आपो देवताः
छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
1
श्वा॒त्राः पी॒ता भ॑वत यू॒यमा॑पोऽअ॒स्माक॑म॒न्तरु॒दरे॑ सु॒शेवाः॑। ताऽअ॒स्मभ्य॑मय॒क्ष्माऽअ॑नमी॒वाऽअना॑गसः॒ स्व॑दन्तु दे॒वीर॒मृता॑ऽऋता॒वृधः॑॥१२॥
स्वर सहित पद पाठश्वा॒त्राः पी॒ताः। भ॒व॒त॒। यू॒यम्। आ॒पः॒। अ॒स्माक॑म्। अ॒न्तः। उ॒दरे। सु॒शेवा॒ इति॑ सु॒ऽशे॑वाः। ताः। अ॒स्मभ्य॑म्। अ॒य॒क्ष्माः। अ॒न॒मी॒वाः। अना॑गसः। स्वद॑न्तु। दे॒वीः। अ॒मृताः॑। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑ ॥१२॥
स्वर रहित मन्त्र
श्वात्राः पीता भवत यूयमापो अस्माकमन्तरुदरे सुशेवाः । ता अस्मभ्यमयक्ष्मा अनमीवा अनागसः स्वदन्तु देवीरमृता ऋतावृधः ॥
स्वर रहित पद पाठ
श्वात्राः पीताः। भवत। यूयम्। आपः। अस्माकम्। अन्तः। उदरे। सुशेवा इति सुऽशेवाः। ताः। अस्मभ्यम्। अयक्ष्माः। अनमीवाः। अनागसः। स्वदन्तु। देवीः। अमृताः। ऋतावृधः। ऋतवृध इत्यृतऽवृधः॥१२॥
विषय - इसका अनुष्ठान करके आगे मनुष्यों को क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे मनुष्यो ! जिनका हमने (पीताः) पान किया है और जो (अस्माकम्) हम मनुष्यों के (अन्तः) मध्य (उदरे) शरीर में स्थित होकर (अस्मभ्यम्) हम मनुष्यों के लिये (श्वात्राः) उत्तम विज्ञान वा धन को प्राप्त कराने वाले (सुशेवाः) अत्यन्त सुख देने वाले (अयक्ष्माः) यक्ष्मा अर्थात् क्षयरोग को दूर करने वाले (अनमीवाः) ज्वरादि रोगों से पृथग्भूत (अनागसः) पाप एवं दोष रहित (ऋतावृधः) सत्य को बढ़ाने वाले (अमृताः) नाश रहित अमृत रस वाले (देवी:) दिव्यगुण युक्त (आपः) प्राण वा जल हैं (ताः) उन्हें आप लोग (स्वदन्तु) अच्छे प्रकार से सेवन करो ।
यह अनुष्ठान करके (यूयम्) तुम सदा सुखी (भवत) रहो [एवं ( यूयम्) ये जल (भवत) नित्य सुखदायक सिद्ध हों] ॥ ४ ॥ १२ ॥
भावार्थ - मनुष्य, विद्वानों के संग से उत्तम शिक्षा के द्वारा विद्या को प्राप्त करके सब प्रकार से सुपरीक्षित, शुद्ध, पवित्र, शरीर और आत्मा का बल बढ़ाने वाले, रोगनाशक जल आदि पदार्थों का सेवन करें । विद्या और आरोग्य के बिना कोई भी मनुष्य निरन्तर कर्म नहीं कर सकता, इसलिये जल आदि पदार्थों का सदा सेवन करें ।। ४ । १२ ।।
प्रमाणार्थ -
(श्वात्राः) यहाँ 'श्वात्र' शब्द से 'अर्श आदिभ्योऽच्’ (अ० ५ । २ । १२७) सूत्र से प्रशंसा अर्थ में 'अच्' प्रत्यय है। 'श्वात्र' शब्द निघं० (४ । २) में पद-नामों में और निघं० (२ । १०) में घन-नामों में पढ़ा है। (सुशेवाः) 'शेव' शब्द निघं० (३ । ६) में सुख-नामों में पढ़ा है। (देवीः) यहाँ 'वाच्छन्दसि' [अ० ६ । १ । १०६] सूत्र से 'जस्' प्रत्यय को पूर्वसवर्ण दीर्घ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । २ । २ । १९) में की गई है ।। ४ । १२ ।।
भाष्यसार - जल-- पान किया हुआ जल शरीर में स्थित होकर उत्तम विज्ञान, सुख का हेतु होता है, क्षय-रोग का नाश करता है, ज्वर आदि रोगों को नष्ट करता है, दोषों को दूर हटाता है, शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाता है, मृत्यु से रक्षा करता है, दिव्य गुण प्रदान करता है। जल से विद्या और आरोग्य की प्राप्ति होती है। विद्या और आरोग्य के बिना कोई भी व्यक्ति निरन्तर कर्म नहीं कर सकता। अतः जल आदि पदार्थों का सदा यथारीति सेवन करें ॥ ४ ॥ १२ ॥
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