यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 17
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - आर्ची त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
ए॒षा ते॑ शुक्र त॒नूरे॒तद्वर्च॒स्तया॒ सम्भ॑व॒ भ्राज॑ङ्गच्छ। जूर॑सि धृ॒ता मन॑सा॒ जुष्टा॒ विष्ण॑वे॥१७॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा। ते॒। शु॒क्र॒। त॒नूः। एतत्। वर्चः॑। तया॑। सम्। भ॒व॒। भ्राज॑म्। ग॒च्छ॒। जूः। अ॒सि॒। धृ॒ता। मन॑सा। जुष्टा॑। विष्ण॑वे ॥१७॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा ते शुक्र तनूरेतद्वर्चस्तया सम्भव भ्राजङ्गच्छ । जूरसि धृता मनसा जुष्टा विष्णवे ॥
स्वर रहित पद पाठ
एषा। ते। शुक्र। तनूः। एतत्। वर्चः। तया। सम्। भव। भ्राजम्। गच्छ। जूः। असि। धृता। मनसा। जुष्टा। विष्णवे॥१७॥
विषय - इनको सेवन करके मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे (शुक्र) वीर्य वाले विद्वान् ! [एषा] यह (ते) तेरा जो (विष्णवे) परमेश्वर प्राप्ति वा यज्ञानुष्ठान के लिए (तनूः) शरीर [असि] है, जिसे तू (धृता) धारण और (जुष्टा) प्रेमपूर्वक सेवन करता है (तया) उस शरीर से (जूः) ज्ञानी प्रौर वेगवाला होकर (एतत्) इस (वर्च:) विज्ञान वा तेज को (सम्भव) सिद्ध कर तथा (भ्राजम्) प्रकाश को (गच्छ) प्राप्त कर (मनसा) इस विज्ञान से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थ को (गच्छ) प्राप्त कर ।। ४ । १७ ।।
भावार्थ - सब मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा का पालन करके विज्ञान युक्त मन के द्वारा शरीर और आत्मा के आरोग्य को बढ़ाकर, यज्ञानुष्ठान करके, विज्ञानयुक्त मन से सदा सुखी रहें ।। ४ । १७ ।।
प्रमाणार्थ -
(धृता) यहाँ 'कृतो बहुलम्' [अ० ३ । ३ । १३] वार्त्तिक से 'क्विप्' प्रत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । २ । ४ । ९-११) में की गई है ।। ४ । १७ ।।
भाष्यसार - अग्नि आदि का सेवन करके मनुष्य कैसे हों--सब मनुष्यों का शरीर परमेश्वर ने अपनी आज्ञा का पालन करने के लिये एवं यज्ञानुष्ठान के लिये बनाया है। विज्ञान-युक्त मन से शरीर और आत्मा के आरोग्य को बढ़ावें। इस शरीर को प्रीतिपूर्वक धारण करके, एवं इसका सेवन (सदुपयोग) करके ज्ञानी बनें, बलवान् बनें, विज्ञान और तेज को सिद्ध करें, विद्या-प्रकाश को प्राप्त करें, विज्ञान युक्त मन से पुरुषार्थ अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप सुखों को प्राप्त करें।। ४ । १७ ।।
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