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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 36
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - विराट आर्षी त्रिष्टुप्,विराट आर्ची पङ्क्ति,साम्नी उष्णिक् स्वरः - धैवतः, ऋषभः
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    म॒रुत्व॑न्तं वृष॒भं वा॑वृधा॒नमक॑वारिं॑ दि॒व्यꣳ शा॒समिन्द्र॑म्। वि॒श्वा॒साह॒मव॑से॒ नूत॑नायो॒ग्रꣳ स॑हो॒दामि॒ह तꣳ हु॑वेम। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि म॒रुतां॒ त्वौज॑से॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒रुत्व॑न्तम्। वृ॒ष॒भम्। वा॒वृ॒धा॒नम्। वा॒वृ॒धा॒नमिति॑ ववृधा॒नम्। अक॑वारि॒मित्यक॑वऽअरिम्। दि॒व्यम्। शा॒सम्। इन्द्र॑म्। वि॒श्वा॒साह॑म्। वि॒श्व॒सह॒मिति॑ विश्व॒ऽसह॑म्। अव॑से। नूत॑नाय। उ॒ग्रम्। स॒हो॒दामिति॑ सहः॒ऽदाम्। इ॒ह। तम्। हु॒वे॒म॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒रुता॑म् त्वा॒। ओज॑से ॥३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुत्वन्तँवृषभँवावृधानमकवारिं दिव्यँ शासमिन्द्रम् । विश्वासाहमवसे नूतनायोग्रँसहोदामिह तँ हुवेम । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा मरुत्वतऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते । उपयामगृहीतो सि मरुतान्त्वौजसे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मरुत्वन्तम्। वृषभम्। वावृधानम्। वावृधानमिति ववृधानम्। अकवारिमित्यकवऽअरिम्। दिव्यम्। शासम्। इन्द्रम्। विश्वासाहम्। विश्वसहमिति विश्वऽसहम्। अवसे। नूतनाय। उग्रम्। सहोदामिति सहःऽदाम्। इह। तम्। हुवेम। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। मरुताम् त्वा। ओजसे॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 36
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    भाषार्थ -
    हम कवि लोग (नूतनाय ) नवीन (अवसे) रक्षा आदि के साधनों के लिये (मरुत्वन्तम्) उत्तम प्रजा से युक्त (वृषभम्) सब से उत्तम (वावृधानम्) शुभ गुण कर्मों में अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुये (अकवारिम्) धर्म का उपदेश न करने वाले अर्थात् अधर्मात्मा जन के शत्रु (दिव्यम्) शुद्ध (विश्वासहम्) सब से सहनशीलता का बर्ताव करने वाले (उग्रम्) तीव्र पराक्रम वाले (सहोदाम्) बल को देने वाले (शासम्) शासन करने वाले उस पूर्वोक्त (इन्द्रम्) ऐश्वर्य से सम्पन्न राजा को (हुवेम) स्वीकार करते हैं । हे मुख्य सभासद ! क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) सब नियम और उपनियम के साधनों से युक्त (असि) हो, इसलिये (त्वा) आापको (असि) (मरुत्वते) उत्तम प्रजा से युक्त तथा (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के लिये, और क्योंकि (ते) आपका (एषः) यह ऐश्वर्य (योनिः) प्रजा के सुख का कारण है, इसलिये (त्वा) आपको (मरुत्वते) उत्तम प्रजा से युक्त तथा (इन्द्राय) परम ऐश्वर्यवान् होने के लिये और क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) सब नियम-उपनियम के साधनों से युक्त (असि) हो, इसलिये (मरुताम्) प्रजा के (ओजसे) बल के लिये (त्वा) आपको (हुवेम) मुख्य सभासद स्वीकार करते हैं ।। ७ । ३६ ।।

    भावार्थ - यहाँ पूर्व मन्त्र से 'कवयः' इस पद की अनुवृत्ति आती है। प्रजा-जनों को योग्य है कि वे जो सब से उत्तम, सकल गुण युक्त, विद्वान् और शूरवीर पुरुष हो, उसे सभा के मुख्य कार्य में नियुक्त करें, और— वह सभा में सत्य, न्याय और धर्म से युक्तराज्य के कार्य से प्रजा के बल को बढ़ावे ।। ७ । ३६ ।।

    भाष्यसार - राजा और प्रजा का कर्त्तव्य--मेधावी प्रजा-जन नूतन रक्षा आदि कार्यों के लिये प्रशंसनीय प्रजा वाले, सर्वोत्तम, अत्यन्त शुभ गुण कर्मों से युक्त, अधर्मात्माओं के शत्रु, सहनशील, प्रचण्ड पराक्रमी शूरवीर, बलदायी, शासनकुशल, ऐश्वर्य सम्पन्न विद्वान् पुरुष को सभा के मुख्य कार्यों में नियुक्त करें । सब नियम-उपनियमों को जानने वाला उक्त मुख्य सभापति राजा अपनी प्रशंसनीय प्रजा और परम ऐश्वर्य को सब सुखों का हेतु समझे और प्रशंसनीय प्रजा तथा परम ऐश्वर्य की स्थिति के लिये सब नियम-उपनियमों से संयुक्त रहे । सभापति पद पर नियुक्त होकर सत्य, न्याय और धर्म से युक्त राज्य कार्यों के द्वारा प्रजा के बल की वृद्धि करे ।। ७ । ३६ ।।

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