यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 39
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति,साम्नी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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म॒हाँ२ऽइन्द्रो॑ नृ॒वदा च॑र्षणि॒प्राऽउ॒त द्वि॒बर्हा॑ऽअमि॒नः सहो॑भिः। अ॒स्म॒द्र्यग्वावृधे वी॒र्यायो॒रुः पृ॒थुः सुकृ॑तः क॒र्तृभि॑र्भूत्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि महे॒न्द्राय॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्महे॒न्द्राय॑ त्वा॥३९॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान्। इन्द्रः॑। नृ॒वदिति॑ नृ॒ऽवत्। आ। च॒र्ष॒णि॒प्रा इति॑ चर्षणि॒ऽप्राः। उ॒त। द्वि॒बर्हा॒ इति॑ द्वि॒बर्हाः॑। अ॒मि॒नः। सहो॑भि॒रिति॒ सहः॑ऽभिः। अ॒स्म॒द्र्य᳖क्। वा॒वृ॒धे॒। व॒वृ॒ध॒ इति॑ ववृधे। वी॒र्य्या᳖य। उ॒रुः। पृ॒थुः। सुकृ॑त॒ इति॒ सुऽकृ॑तः। क॒र्तृभि॒रिति॑ क॒र्तृ॒ऽभिः॑। भू॒त्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्रा॑य। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्राय॑। त्वा॒ ॥३९॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँ इन्द्रो नृवदा चर्षणिप्रा उत द्विबर्हा अमिनः सहोभिः । अस्मर्द्यग्वावृधे वीर्यायोरुः पृथुः सुकृतः कर्तृभिर्भूत् । उपयामगृहीतो सि महेन्द्राय त्वैष ते योनिर्महेन्द्राय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
महान्। इन्द्रः। नृवदिति नृऽवत्। आ। चर्षणिप्रा इति चर्षणिऽप्राः। उत। द्विबर्हा इति द्विबर्हाः। अमिनः। सहोभिरिति सहःऽभिः। अस्मद्र्यक्। वावृधे। ववृध इति ववृधे। वीर्य्याय। उरुः। पृथुः। सुकृत इति सुऽकृतः। कर्तृभिरिति कर्तृऽभिः। भूत्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। महेन्द्रायेति महाऽइन्द्राय। त्वा। एषः। ते। योनिः। महेन्द्रायेति महाऽइन्द्राय। त्वा॥३९॥
विषय - अब ईश्वर अपने गुणों का उपदेश करता है ।।
भाषार्थ -
हे भगवन् जगदीश्वर ! क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) योगाभ्यास से प्राप्त करने योग्य (असि) हो, अतः (महेन्द्राय) अत्युत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (त्वा) आपकी हम उपासना करते हैं, (उत) और--क्योंकि (ते) आपका (एषः) यह ऐश्वर्य (योनिः) निवास है, इस लिये [त्वा] आप के (महेन्द्राय) अत्युत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हम सेवन करते हैं। और--
जो ईश्वर(महान्) सब से उत्कृष्ट और पूज्यतम, (नृवत्) न्यायशील मनुष्यों के तुल्य (आचर्षणिप्राः) मनुष्यों को सुखों से भरपूर करने वाला, (द्विबर्हाः) व्यावहारिक और पारमार्थिक दो प्रकार की वृद्धि करने वाले विज्ञान से युक्त (अस्मद्र्यक्) हम सबको अपनी सर्वज्ञता से जानने वाला, (अमिनः) अनुपम एवं अतुल पराक्रम वाला, (उरुः) विशाल, (पृथुः) विस्तृत, (कर्तृभिः) शुभ कर्म करने वाले जीवों के साथ (सुकृतः) उत्तम कर्म करने वाला, (इन्द्रः) अत्यन्त उत्कृष्ट ऐश्वर्य वाला (भूत्) है, सब मनुष्य उसी के आश्रित होकर (सहोभिः) सब बलों के साथ (वीर्याय) पराक्रम को (वावृधे) बढ़ाते हैं ।। ७ । ३९ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा अलङ्कारहै।। ईश्वर के आश्रय के बिना कोई भी पुरुष प्रजा का पालन नहीं कर सकता, जैसे ईश्वर सत्य न्याय के आश्रय से सब प्राणियों को सुख देता है वैसे ही राजा भी सब प्रजा को तृप्त करे ॥ ७ । ३९॥
प्रमाणार्थ -
(द्विबर्हाः) यह शब्द निघं० (४ । ३) पद-नामों में पढ़ा है । (अमिनः) इस शब्द का अर्थ निरु० (६ । १६) में इस प्रकार किया है-- "मितमात्र का अर्थ 'महान्' है जो अत्यन्त महान् हो वह, 'अमित' कहाता है; 'अमित' ही 'अमिन' होता है" (भूत्) यहाँ'अट्' का अभाव है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ३ । १८) में की गई है ।। ७ । ३९।।
भाष्यसार - १. ईश्वर के गुणों का उपदेश--हे भगवन् जगदीश्वर ! आप योगाभ्यास से प्राप्त करने योग्य हो । इसलिये अत्युत्तम योग रूप ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हम आपकी उपासना करते हैं। यह अत्युत्तम योग रूप ऐश्वर्य ही आपका निवास हो, इस में आप निवास करते हो, इसलिये इस अनुत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हम आपका सेवन करते हैं । आप सर्वोत्तम और पूज्यतम हो, न्यायकारी हो, धर्मात्मा मनुष्यों को सुख से भरपूर करने वाले हो, व्यावहारिक और पारमार्थिक विज्ञान की वृद्धि करने वाले हो, सर्वज्ञता से सबको जानने वाले हो, विशाल हो, विस्तृत हो, शुभ कर्म करने वाले जीवों को शुभ फल देने वाले हो, अत्यन्त उत्कृष्ट ऐश्वर्य वाले हो । इसलिये आपके आश्रय से ही सब मनुष्य बल और पराक्रम की वृद्धि कर सकते हैं । आपके आश्रय के बिना कोई भी मनुष्य प्रजा का पालन नहीं कर सकता । २. अलङ्कार– इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है।। उपमा यह है कि जैसे ईश्वर सत्य न्याय से सब प्राणियों को सुख देता है वैसे राजा भी सबको सुख देवे ।। ७ । ३९।।
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