यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 36
ऋषिः - विवस्वान् ऋषिः
देवता - परमेश्वरो देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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यस्मा॒न्न जा॒तः परो॑ऽअ॒न्योऽअस्ति॒ यऽआ॑वि॒वेश॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑षि सचते॒ स षो॑ड॒शी॥३६॥
स्वर सहित पद पाठयस्मा॑त्। न। जा॒तः। परः॑। अ॒न्यः। अस्ति॑। यः। आ॒वि॒वेशेत्या॑ऽवि॒वेश॑। भुव॑नानि। विश्वा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। स॒र॒रा॒ण इति॑ सम्ऽर॒रा॒णः। त्रीणि॑। ज्योति॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥३६॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मन्न जातः परोऽअन्योऽअस्ति यऽआविवेश भुवनानि विश्वा । प्रजापतिः प्रजया सँरराणस्त्रीणि ज्योतीँषि सचते स षोडशी ॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्मात्। न। जातः। परः। अन्यः। अस्ति। यः। आविवेशेत्याऽविवेश। भुवनानि। विश्वा। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। प्रजयेति प्रऽजया। सरराण इति सम्ऽरराणः। त्रीणि। ज्योतिषि। सचते। सः। षोडशी॥३६॥
विषय - अब गृहाश्रम की इच्छा करने वालों को ईश्वर की ही उपासना करनी चाहिये, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
(यस्मात् ) जिस परमात्मा से (पर:) उत्तम (अन्य) (अन्यः) दूसरा कोई (न जातः) प्रसिद्ध नहीं [अस्ति] है। औरजो (विश्वा) सब (भुवनानि) स्थानों में (आविवेश) प्रविष्ट है, व्यापक है, वह (प्रजापतिः) विश्व का अध्यक्ष (प्रजया) सब संसार के द्वारा (संरराणः) श्रेष्ठ दाता एवं (षोडश) १. इच्छा, २. प्राण, ३. श्रद्धा, ४. पृथिवी, ५. जल, ६. अग्नि, ७. वायु, ८. आकाश, ६. इन्द्रियाँ, १०. मन, ११. अन्न, १२. वीर्य, १३. तप, १४. मन्त्र, १५. लोक और १६. नाम रूप--सोलह कलाओं वाला (त्रीणिज्योतींषि) सूर्य, विद्युत् और अग्नि नामक तीनों ज्योतियों में (सचते) समवेत हो रहा है, व्यापक है।। ८ । ३६ ।।
भावार्थ - गृहाश्रम की कामना करने वाले मनुष्यों को चाहिये कि वे जो सर्वव्यापक, सब लोकों का स्रष्टा तथा धर्ता है और जो दाता, न्यायकारी, सनातन, सच्चिदानन्द, नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव, सूक्ष्म से सूक्ष्म, महान् से भी महान् सर्वशक्तिमान् परमात्मा है-- जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम वा उसके तुल्य नहीं है, उस परमात्मा की ही उपासना करें॥ ८ । ३६॥
प्रमाणार्थ -
(विश्वा) यहाँ 'शेश्छन्दसि बहुलम्', [अ० ६ । १ । ६८] इस सूत्र से 'शि' का लुक् है । (संरराणः) यहाँ व्यत्यय से आत्मनेपद और 'बहुलं छन्दसि' (अ० २।४ । ७३) इस सूत्र से ‘शप्' के स्थान में 'श्लु' है। (षोडशी) प्रश्नोपनिषद् में [६।४] में-- "इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथिवी, आप, अग्नि, वायु, आकाश, इन्द्रियाँ, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम-- इन सोलह कलाओं का प्रतिपादन किया गया है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।४।५।६) में की गई है ॥ ८ । ३६॥
भाष्यसार - गृहाश्रमियों के लिये परमेश्वर ही उपास्य--परमात्मा से बढ़कर कोई भी पदार्थ उत्तम नहीं है, न कोई पदार्थ उसके तुल्य है, वह सब स्थानों में प्रविष्ट अर्थात् सर्वत्र व्यापक है, वही सब लोकों का स्रष्टा और धर्ता है, वही विश्व का अध्यक्ष है, वही दाता, न्यायकारी, सच्चिदानन्द, नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव है, वही सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है, १. इच्छा, २. प्राण, ३. श्रद्धा, ४. पृथिवी, ५. जल, ६. अग्नि, ७. वायु, ८. आकाश, ६. इन्द्रियाँ, १०. मन, ११. अन्न, १२. वीर्य, १३. तप, १४. मन्त्र, १५. लोक और १६. नाम--इन प्रशस्त सोलह कलाओं से सम्पन्न होने से सर्वशक्तिमान् है, वही सूर्य, विद्युत् तथा अग्नि नामक तीनों ज्योतियों में समाया हुआ है। गृहाश्रम की कामना करने वाले जनों को योग्य है कि वे इस परमेश्वर को छोड़कर अन्य को उपास्य कदापि न मानें ।। ८ । ३६ ।।
अन्यत्र व्याख्यात - (क) जिससे बड़ा, तुल्य वा श्रेष्ठ न हुआ, न है और न कोई कभी होगा, उसको परमात्मा कहना । जो (विश्वा भुवनानि) सब भुवन=लोक सब पदार्थों के निवास स्थान, असंख्यात लोकों को आविवेश=प्रविष्ट होके पूर्ण हो रहा है, वही ईश्वर प्रजा का पति=स्वामी है। सब प्रजा को रमरहा और सब प्रजा में रम रहा है। (त्रीणि ज्योतींषि) तीन ज्योति =अग्नि, वायु और सूर्य इनको जिसने रचा है। सब जगत् के व्यवहार और पदार्थ विद्या की उत्पत्ति के लिए इन तीनों को मुख्य समझना । (स षोडशी) सोलह कला जिसने उत्पन्न की हैं, इससे सोलह कलावान् ईश्वर कहाता है। वे सोलह कला ये हैं-- १. ईक्षण=विचार, २. प्राण, ३. श्रद्धा, ४. आकाश, ५. वायु, ६. अग्नि, ७. जल, ८. पृथिवी, ६. इन्द्रिय, १०. मन, ११. अन्न, १२. वीर्य=पराक्रम, १३. तप=धर्मानुष्ठान, १४. मन्त्र=वेदविद्या, १५. कर्मलोक=चेष्टा-स्थान और १६. लोकों में नाम। इतनी कलाओं के बीच में सब जगत् है और परमेश्वर में अनन्त कला है। उसकी उपासना छोड़ के जो दूसरे की उपासना करता है, वह सुख को प्राप्त कभी नहीं होता किन्तु सदा दुःख में ही पड़ा रहता है ।। आर्याभि० २ । १४ ।। (ख)(यस्मात्) जिस परब्रह्म से (अन्यः) दूसरा कोई भी (परः) उत्तम पदार्थ (जातः) प्रकट (नास्ति) अर्थात् नहीं है, (य आविवेश भुवनानि विश्वा) जो सब विश्व अर्थात् सब जगहों में व्याप्त हो रहा है, (प्रजापतिः प्रजयासंरराणः) वही सब जगत् का पालनकर्ता और अध्यक्ष है, जिसने (त्रीणि ज्योतींषि) अग्नि, सूर्य, बिजली--इन तीन ज्योतियों को प्रजा के प्रकाश होने के लिए (सचते) रच के संयुक्त किया है और जिसका नाम (षोडशी) है, अर्थात् १. ईक्षण=जो यथार्थ विचार, २. प्राण= जो कि सब विश्व का धारण करने वाला, ३. श्रद्धा=सत्य में विश्वास, ४. आकाश, ५. वायु, ६. अग्नि, ७. जल, ८. पृथिवी, ९. इन्द्रिय, १०. मन अर्थात् ज्ञान, ११. अन्न, १२. वीर्य अर्थात् बल और पराक्रम, १३. तप अर्थात् धर्मानुष्ठान सत्याचार, १४. मन्त्र अर्थात् वेद विद्या, १५. कर्म अर्थात् सब चेष्टा, १६. नाम अर्थात् दृश्य और अदृश्य पदार्थों की संज्ञा। ये ही सोलह कला कहलाती हैं। ये सब ईश्वर ही के बीच में हैं, इससे उसको षोडशी कहते हैं। इन षोडश कलाओं का प्रतिपादन प्रश्नोपनिषद् के छठे प्रश्न में लिखा है (ऋ० भू० वेदविषय-विचारविषयः) ॥ ८।३६ ॥
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