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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 36
    ऋषिः - विवस्वान् ऋषिः देवता - परमेश्वरो देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    4

    यस्मा॒न्न जा॒तः परो॑ऽअ॒न्योऽअस्ति॒ यऽआ॑वि॒वेश॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑षि सचते॒ स षो॑ड॒शी॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मा॑त्। न। जा॒तः। परः॑। अ॒न्यः। अस्ति॑। यः। आ॒वि॒वेशेत्या॑ऽवि॒वेश॑। भुव॑नानि। विश्वा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। स॒र॒रा॒ण इति॑ सम्ऽर॒रा॒णः। त्रीणि॑। ज्योति॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मन्न जातः परोऽअन्योऽअस्ति यऽआविवेश भुवनानि विश्वा । प्रजापतिः प्रजया सँरराणस्त्रीणि ज्योतीँषि सचते स षोडशी ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मात्। न। जातः। परः। अन्यः। अस्ति। यः। आविवेशेत्याऽविवेश। भुवनानि। विश्वा। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। प्रजयेति प्रऽजया। सरराण इति सम्ऽरराणः। त्रीणि। ज्योतिषि। सचते। सः। षोडशी॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    संस्कृत (3)

    विषयः

    अथ गृहाश्रममिच्छद्भ्यो जनेभ्यः परमेश्वर एवोपास्य इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यस्मात् परोऽन्यो न जातः किंच यो विश्वा भुवनान्याविवेश, स प्रजापतिः प्रजया संरराणः षोडशी त्रीणि ज्योतींषि सचते॥३६॥

    पदार्थः

    (यस्मात्) परमात्मनः (न) निषेधे (जातः) प्रसिद्धः (परः) उत्तमः (अन्यः) भिन्नः (अस्ति) (यः) (आविवेश) (भुवनानि) स्थानानि (विश्वा) सर्वाणि, अत्र शेर्लुक् (प्रजापतिः) विश्वस्याध्यक्षः (प्रजया) सर्वेण संसारेण (संरराणः) सम्यग्दातृशीलः, अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰२।४।७६) इति शपः स्थाने श्लुः (त्रीणि) (ज्योतींषि) सूर्य्यविद्युदग्न्याख्यानि (सचते) सर्वेषु समवैति (सः) (षोडशी) प्रशस्ताः षोडश कला विद्यन्ते यस्मिन् सः। इच्छा प्राणः श्रद्धा पृथिव्यापोऽग्निर्वायुराकाशमिन्द्रियाणि मनोऽन्नं वीर्य्यन्तपो मन्त्रा लोको नाम चैताः कलाः प्रश्नोपनिषदि प्रतिपादिताः। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ४। ५। ६ व्याख्यातः॥३६॥

    भावार्थः

    गृहाश्रममिच्छद्भिर्मनुष्यैर्यः सर्वत्राभिव्यापि सर्वेषां लोकानां स्रष्टा धर्ता दाता न्यायकारी सनातनः सच्चिदानन्दो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावः सूक्ष्मात् सूक्ष्मो महतो महान् सर्वशक्तिमान् परमात्माऽस्ति, यस्मात् कश्चिदपि पदार्थ उत्तमः समो वा नास्ति, स एवोपास्यः॥३६॥

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    विषयः

    वेदविषयविचार:

    व्याख्यानम्

    एतस्यार्थः—( यस्मात् न ) नैव परब्रह्मणः सकाशात् ( परः ) उत्तमः पदार्थः ( जातः ) प्रादुर्भूतः प्रकटः ( अन्यः ) भिन्नः कश्चिदप्यस्ति, ( प्रजापतिः ) प्रजापतिरिति ब्रह्मणो नामास्ति, प्रजापालकत्वात्, ( य आविवेश भु॰ ) यः परमेश्वरः ( विश्वा ) विश्वानि सर्वाणि ( भुवनानि ) सर्वलोकान् ( आविवेश ) व्याप्तवानस्ति, ( सꣳरराणः ) सर्वप्राणिभ्योऽत्यन्तं सुखं दत्तवान् सन् ( त्रीणि ज्योतिंषि ) त्रीण्यग्निसूर्यविद्युदाख्यानि सर्वजगत्प्रकाशकानि ( प्रजया ) ज्योतिषोऽन्यया सृष्ट्या सह तानि ( सचते ) समवेतानि करोति, कृतवानस्ति, अतः ( सः ) स एवेश्वरः ( षोडशी ) येन षोडशकला जगति रचितास्ता विद्यन्ते यस्मिन् यस्य वा तस्मात् स षोडशीत्युच्यते। अतोऽयमेव परमोऽर्थो वेदितव्यः।

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    विषयः

    अथ गृहाश्रममिच्छद्भ्यो जनेभ्यः परमेश्वर एवोपास्य इत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    यस्मात् परमात्मनः पर: उत्तमः अन्यः भिन्नः न जातः प्रसिद्धः [अस्ति] । किंच--यो विश्वा सर्वाणिभुवनानि स्थानानि आविवेश, स प्रजापतिः विश्वस्याध्यक्षः प्रजया सर्वेण संसारेणसंरराणः सम्यग्दातृशीलः षोडशी प्रशस्ता: षोडश कला: [इच्छा प्राणः श्रद्धा पृथिव्यापोऽग्निर्वायुराकाशमिन्द्रियाणि मनोऽन्नं वीर्यं तयो मन्त्रा लोको नाम च] विद्यन्ते यस्मिन् सः त्रीणि ज्योतींषि सूर्य्य विद्युद्ग्न्याख्यानि सचते सर्वेषु समवैति ॥ ८। ३६ ॥ [यो विश्वा भुवनान्याविवेश, स प्रजापतिः प्रजया संरराण: षोडशी त्रीणि ज्योतींषि सचते]

    पदार्थः

    (यस्मात्) परमात्मनः (न) निषेधे (जातः) प्रसिद्धः (परः) उत्तमः (अन्यः) भिन्नः (अस्ति)(यः)(आविवेश)(भुवनानि) स्थानानि (विश्वा) सर्वाणि। अत्र शेर्लुक्(प्रजापतिः) विश्वस्याध्यक्षः (प्रजया) सर्वेण संसारेण(संरराणः) सम्यग्दातृशीलः । अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् । बहुलं छन्दसि ॥अ० २ । ४ । ७३ ॥इति शपः स्थाने श्लुः(त्रीणि)(ज्योतींषि) सूर्य्यविद्युदग्न्याख्यानि (सचते) सर्वेषु समवैति (सः)(षोडशी) प्रशस्ताः षोडश कला विद्यन्ते यस्मिन् स:। इच्छा प्राणः श्रद्धा पृथिव्यापोऽग्निर्वायुराकाशमिन्द्रियाणि मनोऽन्नं वीर्य्यन्तपो मन्त्रा लोको नाम चैताः कलाः प्रश्नोपनिषदि प्रतिपादिताः ॥ अयम्मन्त्रः शत० ४ । ४ । ५ । ६ व्याख्यातः ॥ ३६ ॥

    भावार्थः

    गृहाश्रममिच्छद्भिर्मनुष्यैः--यः सर्वत्राभिव्यापी, सर्वेषां लोकानां स्रष्टा, धर्ता, दाता, न्यायकारी, सनातनः, सच्चिदानन्दो, नित्य शुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव:, सूक्ष्मात् सूक्ष्मः, महतो महान्, सर्वशक्तिमान् परमात्मास्ति, [यस्मात्परोऽन्यो न जातः [अस्ति]] यस्मात् कश्चिदपि पदार्थ उत्तमः समो वा नास्ति, स एवोपास्यः ॥ ८ । ३६ ॥

    विशेषः

    विवस्वान् । परमेश्वर:=स्पष्टम् ॥भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    अब गृहाश्रम की इच्छा करने वालों को ईश्वर ही की उपासना करनी चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (यस्मात्) जिस परमेश्वर से (परः) उत्तम (अन्यः) और दूसरा (न) नहीं (जातः) हुआ और (यः) जो परमात्मा (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोकों को (आविवेश) व्याप्त हो रहा है, (सः) वह (प्रजया) सब संसार से (संरराणः) उत्तम दाता होता हुआ (षोडशी) इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दशों इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह कलाओं के स्वामी (प्रजापतिः) संसार मात्र के स्वामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (ज्योतींषि) ज्योति अर्थात् सूर्य्य, बिजुली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थों में स्थापित करता है॥३६॥

    भावार्थ

    गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषों को चाहिये कि जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोकों का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात् सदा ऐसा ही बना रहता है, सत्, अविनाशी, चैतन्य और आनन्दमय, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव और सब पदार्थों से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान् परमात्मा जिस से कोई भी पदार्थ उत्तम वा जिसके समान नहीं है, उसकी उपासना करें॥३६॥

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    विषय

    स्तुति का स्वरूप

    पदार्थ

    गत मन्त्र में स्तुति करने का उल्लेख था। प्रस्तुत मन्त्र में स्तुति का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं। १. ( यस्मात् ) = जिससे अधिक ( जातः ) = प्रसिद्ध व ( परः ) = उत्तम ( अन्यः ) = दूसरा ( न अस्ति ) =  नहीं है। प्रकृति व जीव भी अनादि सत्ताएँ हैं, परन्तु परमात्मा के समान न तो वे प्रसिद्ध हैं और न ही उत्कृष्ट। 

    २. यह परमात्मा सत्ता वह है ( यः ) = जो ( विश्वा ) = सब ( भुवनानि ) = भुवनों में, लोक-लोकान्तरों में, ( आविवेश ) = प्रविष्ट हो रही है। कोई भी पिण्ड उस सत्ता की व्याप्ति के बिना नहीं है। वस्तुतः अन्य सब पिण्ड उसी सत्ता से विभूतिमत्, श्रीमत् व ऊर्जित हो रहे हैं। 

    ३. ( प्रजापतिः ) = वे प्रभु ही सब प्रजाओं के पति हैं, सबके अन्दर व्याप्त होकर उनकी रक्षा कर रहे हैं। ( प्रजया संरराणः ) = प्रजा के साथ सम्यक् रमण करनेवाले हैं। प्रजा की रक्षा वही कर सकता है जो प्रजा के साथ रमण करे। 

    ४. इस प्रजा के कल्याण के लिए ही वे प्रभु ( त्रीणि ज्योतींषि सचते ) = तीन ज्योतियों को धारण करते हैं। द्युलोक का सूर्य, अन्तरिक्षलोक का वायु व विद्युत् और पार्थिवलोक की अग्नि प्रभु की दीप्ति से ही दीप्तिवाले हो रहे हैं। तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। 

    ४. प्राकृतिक पिण्डों व देवों को तो वे प्रभु देवत्व [ ज्योति ] प्राप्त करा ही रहे हैं, इसके साथ ( सः ) = वे प्रभु ही ( षोडशी ) = सोलह कलाओं के भी स्वामी हैं। प्रभु की उपासना से ही जीव इन सोलह कलाओं को प्राप्त किया करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु सर्वोपरि सत्ता हैं। सब देवों को देवत्व व सब प्राणियों को सोलह कलाएँ वे प्रभु ही प्राप्त कराया करते हैं। इस प्रकार प्रभु-स्तवन करनेवाला ‘विवस्वान्’—सूर्य के समान अन्धकार को दूर करके प्रकाशवाला बनता है।

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    विषय

    वेदविषयविचार:

    व्याख्यान

    ( यस्मान्न जा॰ ) जिस परब्रह्म से ( अन्यः ) दूसरा कोई ( परः ) उत्तम पदार्थ ( जातः ) प्रकट ( नास्ति ) अर्थात् नहीं है, ( य आविवेश भु॰ ) जो सब विश्व अर्थात् सब जगह में व्याप्त हो रहा है, ( प्रजापतिः प्र॰ ) वही सब जगत् का पालनकर्त्ता और अध्यक्ष है, जिसने ( त्रीणि ज्योतिंषि ) अग्नि, सूर्य और बिजली इन तीन ज्योतियों को सर्वजगत् के प्रकाश होने के लिये ( सचते ) रचके संयुक्त किया है, और जिसका नाम ( षोडशी ) है, अर्थात् [ १ ] ईक्षण, जो यथार्थ विचार, [ २ ] प्राण, जो कि सब विश्व का धारण करने वाला, [ ३ ] श्रद्धा, सत्य में विश्वास, [ ४ ] आकाश, [ ५ ] वायु, [ ६ ] अग्नि, [ ७ ] जल, [ ८ ] पृथिवी, [ ९ ] इन्द्रिय, [ १० ] मन अर्थात् ज्ञान, [ ११ ] अन्न, [ १२ ] वीर्य, अर्थात् बल और पराक्रम, [ १३ ] तप, अर्थात् धर्मानुष्ठान सत्याचार, [ १४ ] मन्त्र, अर्थात् वेदविद्या, [ १५ ] कर्म, अर्थात् सब चेष्टा, [ १६ ] नाम, अर्थात् दृश्य और अदृश्य पदार्थों की संज्ञा, ये ही सोलह कला कहाती हैं। ये सब ईश्वर ही के बीच में हैं, इससे उसको षोडशी कहते हैं। इन षोडश कलाओं का प्रतिपादन प्रश्नोपनिषद् के ६ छठे प्रश्न में लिखा है।

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    (यस्मात् न, जातः, परः, अन्यः अस्ति)  जिससे बड़ा, तुल्य वा श्रेष्ठ न हुआ, न है और न कोई कभी होगा, उसको परमात्मा कहना' । जो (विश्वा भुवनानि)  सब भुवन [लोक] सब पदार्थों के निवासस्थान असंख्यात लोकों को (आविवेश) प्रविष्ट होके पूर्ण हो रहा है, वही ईश्वर (प्रजापतिः) प्रजा का पति [स्वामी] है। वही सब (प्रजया संरराण:) प्रजा को रमा रहा और सब प्रजा में रम रहा है (त्रीणीत्यादि) तीनं ज्योति अग्नि, वायु और सूर्य इनको जिसने रचा है, सब जगत् के व्यवहार और पदार्थविद्या की उत्पत्ति के लिए इन तीनों को मुख्य समझना। "सः षोडसी" सोलहकला जिसने उत्पन्न की हैं, इससे सोलह कलावान् ईश्वर कहाता है। वे सोलह कला ये हैं— ईक्षण [विचार] १, प्राण २, श्रद्धा ३, आकाश ४, वायु ५, अग्नि ६, जल ७, पृथिवी ८, इन्द्रिय ९, मन १०, अन्न ११, वीर्य [पराक्रम] १२, तप, [धर्मानुष्ठान] १३, मन्त्र [वेदविद्या] १४, कर्म [चेष्टा] १५, लोक और लोकों में नाम १६ - इतनी कलाओं के बीच में सब जगत् है और परमेश्वर में अनन्तकला हैं। उसकी उपासना को छोड़के जो दूसरे की उपासना करता है वह सुख को प्राप्त कभी नहीं होता, किन्तु सदा दुःख में ही पड़ा रहता है ॥ १४॥

    टिपण्णी

    १. कहना = जानना चाहिए।

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    विषय

    षोडशी इन्द्र का वर्णन ।

    भावार्थ

     ( यस्मात् ) जिससे ( परः ) उत्कृष्ट उत्तम ( परः अन्यः ) दूसरा कोई ( न जातः अस्ति ) नहीं हुआ है और ( य: ) जो ( विश्वा भुवनानि समस्त भुवनों लोकों में ( आविवेश ) आविष्ट, विराजमान, एवं व्यापक है। वह ( प्रजापतिः ) प्रजा का पालक राजा और परमेश्वर ( प्रजया ) अपनी प्रजा से ( सं रराण: भली प्रकार रमण करता हुआ अथवा समस्त उत्तम पदार्थों का दान करता हुआ (त्राणि ज्योतींष ) सूर्य, विद्युत और अग्नि इन तीनों ज्योतियों को ( सचते अपने भीतर धारण करता है । (सः) वह ही । षोडशी ) सोलहों कलाओं से युक्त है | 
    ब्रह्म पक्ष में - इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथिवी आपः, अग्नि, वायु आकाश इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तपः, मन्त्र, लोक नाम ये १६ कला हैं ( देखो प्रश्न उप० ) । 
    राजा के पक्ष में- षोडषी प्रजापति सम्राट् वह कहाने योग्य है, जिस- से उत्कृष्ट दूसरा न हो। वह अपने राज्य के समस्त स्थानों और पदों पर शासक हो । वह अपने प्रजा सहित रमण करता हुआ तीनों ज्योति सूर्य, विद्युत् अग्नि के गुणों को धारण करे। तेज में सूर्य, बल में विद्युत् और ज्ञान में अग्नि के समान तेज वी हो। वह 'षोडशी' सोलह कलावान् पुरुषोत्तम पद का भागी होता है ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विवस्वान् ऋषिः । इन्द्र: । षोडशी प्रजापतिः परब्रह्म परमेश्वरो वा देवता । भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ 
     

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    विषय

    अब गृहाश्रम की इच्छा करने वालों को ईश्वर की ही उपासना करनी चाहिये, यह उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    (यस्मात् ) जिस परमात्मा से (पर:) उत्तम (अन्य) (अन्यः) दूसरा कोई (न जातः) प्रसिद्ध नहीं [अस्ति] है। औरजो (विश्वा) सब (भुवनानि) स्थानों में (आविवेश) प्रविष्ट है, व्यापक है, वह (प्रजापतिः) विश्व का अध्यक्ष (प्रजया) सब संसार के द्वारा (संरराणः) श्रेष्ठ दाता एवं (षोडश) १. इच्छा, २. प्राण, ३. श्रद्धा, ४. पृथिवी, ५. जल, ६. अग्नि, ७. वायु, ८. आकाश, ६. इन्द्रियाँ, १०. मन, ११. अन्न, १२. वीर्य, १३. तप, १४. मन्त्र, १५. लोक और १६. नाम रूप--सोलह कलाओं वाला (त्रीणिज्योतींषि) सूर्य, विद्युत् और अग्नि नामक तीनों ज्योतियों में (सचते) समवेत हो रहा है, व्यापक है।। ८ । ३६ ।।

    भावार्थ

    गृहाश्रम की कामना करने वाले मनुष्यों को चाहिये कि वे जो सर्वव्यापक, सब लोकों का स्रष्टा तथा धर्ता है और जो दाता, न्यायकारी, सनातन, सच्चिदानन्द, नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव, सूक्ष्म से सूक्ष्म, महान् से भी महान् सर्वशक्तिमान् परमात्मा है-- जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम वा उसके तुल्य नहीं है, उस परमात्मा की ही उपासना करें॥ ८ । ३६॥

    प्रमाणार्थ

    (विश्वा) यहाँ 'शेश्छन्दसि बहुलम्', [अ० ६ । १ । ६८] इस सूत्र से 'शि' का लुक् है । (संरराणः) यहाँ व्यत्यय से आत्मनेपद और 'बहुलं छन्दसि' (अ० २।४ । ७३) इस सूत्र से ‘शप्' के स्थान में 'श्लु' है। (षोडशी) प्रश्नोपनिषद् में [६।४] में-- "इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथिवी, आप, अग्नि, वायु, आकाश, इन्द्रियाँ, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम-- इन सोलह कलाओं का प्रतिपादन किया गया है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।४।५।६) में की गई है ॥ ८ । ३६॥

    भाष्यसार

    गृहाश्रमियों के लिये परमेश्वर ही उपास्य--परमात्मा से बढ़कर कोई भी पदार्थ उत्तम नहीं है, न कोई पदार्थ उसके तुल्य है, वह सब स्थानों में प्रविष्ट अर्थात् सर्वत्र व्यापक है, वही सब लोकों का स्रष्टा और धर्ता है, वही विश्व का अध्यक्ष है, वही दाता, न्यायकारी, सच्चिदानन्द, नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव है, वही सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है, १. इच्छा, २. प्राण, ३. श्रद्धा, ४. पृथिवी, ५. जल, ६. अग्नि, ७. वायु, ८. आकाश, ६. इन्द्रियाँ, १०. मन, ११. अन्न, १२. वीर्य, १३. तप, १४. मन्त्र, १५. लोक और १६. नाम--इन प्रशस्त सोलह कलाओं से सम्पन्न होने से सर्वशक्तिमान् है, वही सूर्य, विद्युत् तथा अग्नि नामक तीनों ज्योतियों में समाया हुआ है। गृहाश्रम की कामना करने वाले जनों को योग्य है कि वे इस परमेश्वर को छोड़कर अन्य को उपास्य कदापि न मानें ।। ८ । ३६ ।।

    अन्यत्र व्याख्यात

    (क) जिससे बड़ा, तुल्य वा श्रेष्ठ न हुआ, न है और न कोई कभी होगा, उसको परमात्मा कहना । जो (विश्वा भुवनानि) सब भुवन=लोक सब पदार्थों के निवास स्थान, असंख्यात लोकों को आविवेश=प्रविष्ट होके पूर्ण हो रहा है, वही ईश्वर प्रजा का पति=स्वामी है। सब प्रजा को रमरहा और सब प्रजा में रम रहा है। (त्रीणि ज्योतींषि) तीन ज्योति =अग्नि, वायु और सूर्य इनको जिसने रचा है। सब जगत् के व्यवहार और पदार्थ विद्या की उत्पत्ति के लिए इन तीनों को मुख्य समझना । (स षोडशी) सोलह कला जिसने उत्पन्न की हैं, इससे सोलह कलावान् ईश्वर कहाता है। वे सोलह कला ये हैं-- १. ईक्षण=विचार, २. प्राण, ३. श्रद्धा, ४. आकाश, ५. वायु, ६. अग्नि, ७. जल, ८. पृथिवी, ६. इन्द्रिय, १०. मन, ११. अन्न, १२. वीर्य=पराक्रम, १३. तप=धर्मानुष्ठान, १४. मन्त्र=वेदविद्या, १५. कर्मलोक=चेष्टा-स्थान और १६. लोकों में नाम। इतनी कलाओं के बीच में सब जगत् है और परमेश्वर में अनन्त कला है। उसकी उपासना छोड़ के जो दूसरे की उपासना करता है, वह सुख को प्राप्त कभी नहीं होता किन्तु सदा दुःख में ही पड़ा रहता है ।। आर्याभि० २ । १४ ।। (ख)(यस्मात्) जिस परब्रह्म से (अन्यः) दूसरा कोई भी (परः) उत्तम पदार्थ (जातः) प्रकट (नास्ति) अर्थात् नहीं है, (य आविवेश भुवनानि विश्वा) जो सब विश्व अर्थात् सब जगहों में व्याप्त हो रहा है, (प्रजापतिः प्रजयासंरराणः) वही सब जगत् का पालनकर्ता और अध्यक्ष है, जिसने (त्रीणि ज्योतींषि) अग्नि, सूर्य, बिजली--इन तीन ज्योतियों को प्रजा के प्रकाश होने के लिए (सचते) रच के संयुक्त किया है और जिसका नाम (षोडशी) है, अर्थात् १. ईक्षण=जो यथार्थ विचार, २. प्राण= जो कि सब विश्व का धारण करने वाला, ३. श्रद्धा=सत्य में विश्वास, ४. आकाश, ५. वायु, ६. अग्नि, ७. जल, ८. पृथिवी, ९. इन्द्रिय, १०. मन अर्थात् ज्ञान, ११. अन्न, १२. वीर्य अर्थात् बल और पराक्रम, १३. तप अर्थात् धर्मानुष्ठान सत्याचार, १४. मन्त्र अर्थात् वेद विद्या, १५. कर्म अर्थात् सब चेष्टा, १६. नाम अर्थात् दृश्य और अदृश्य पदार्थों की संज्ञा। ये ही सोलह कला कहलाती हैं। ये सब ईश्वर ही के बीच में हैं, इससे उसको षोडशी कहते हैं। इन षोडश कलाओं का प्रतिपादन प्रश्नोपनिषद् के छठे प्रश्न में लिखा है (ऋ० भू० वेदविषय-विचारविषयः) ॥ ८।३६ ॥

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    मराठी (4)

    भावार्थ

    गृहस्थाश्रमी लोकांनी सर्वत्र व्याप्त, लोकांची (गोलांची) निर्मिती करणारा, त्यांना धारण करणारा, दाता, न्यायी, सनातन, सत्, अविनाशी, चैतन्यमय, आनंदमय, नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव, सर्व पदार्थांपासून वेगळा, सूक्ष्मात सूक्ष्म, स्थूलामध्ये स्थूल, सर्व शक्तिमान, असा जो परमेश्वर, त्याचीच उपासना करावी कारण त्याच्यापेक्षा कोणताही पदार्थ उत्तम नाही किंवा त्याच्यासारखा नाही.

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    विषय

    ज्यांना गृहाश्रम सुखमय होण्याची इच्छा असेल, त्यांनी ईश्वराची उपासना अवश्य केली पाहिजे, पुढील मंत्रात ह्या विषयीं उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (यस्मात्) ज्या परमेश्वराहून (पर:) उत्तम (अन्य:) अन्य कोणी (न) नाही, (जात:) झाला नाही आणि (य:) जो परमात्मा (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोकांमध्ये (अविवेश) व्यापून राहिला आहे. (ए:) तो (प्रजया) सार्‍या जगापेक्षां (जगातील सर्वांपेक्षा) (संसराण:) उत्तम दाता आहे आणि (षोडशी) इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथिवी, जन, अग्नी, वायु, आकाश, दश इंद्रिये, मन, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, लोक आणि नाम, या सोळा कलांचा स्वामी आहे. तोच (प्रजापति:) सर्व जगाचा स्वामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (ज्योतींषि ज्योतींची अर्थात सूर्य, विद्युत आणि अग्नी यांची (सचते) सर्व पदार्थांमध्ये स्थापना करतो. ॥36॥

    भावार्थ

    भावार्थ - आपला गृहाश्रम सुख समाधानाने परिपूर्ण असावा, अशी ज्या गृहाश्रमीजनांची इच्छा असेल, त्यांनी सर्वशक्तीमान परमात्म्याची उपासना करावी. तो परमेश्वर सर्वत्र व्यापक आहे, सर्व लोक रचयिता, धारणकर्ता, दाता आणि न्यायकारी आहे. तोच सनातन म्हणजे सदा एकसारखा असतो, तो सत्, अविनाशी, चैतन्य, आनंदमय, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव आणि सर्व पदार्थांत असूनही सर्वांपेक्षा वेगळा आहे. तो लहानाहून लहान, (सुक्ष्माहून सूक्ष्म) आणि महानाहून महान आहे. अशा सर्वशक्तिमान परमात्म्याची गृहस्थांनी उपासना करावी, कारण की कोणताही पदार्थ त्याच्यापेक्षा उत्तम नाही किंवा त्या समान ही नाही. ॥36॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    ज्याच्या इतका महान तुलनीय किंवा श्रेष्ठ कुणी झालेला नाही किंवा कुणी होणार नाही त्या परमेश्वराचे वर्णन कसे करावे? जो (विश्वा भुवनानि) सर्व भुवन [लोक] सर्व पदार्थांचे निवासस्थान असून असंख्य लोकांमध्ये (आविवेश) प्रविष्ट होऊन परिपूर्ण होत आहे. तोच ईश्वर प्रजेचा पती आहे. तो सर्व प्रजेला रमवितो आणि सर्व प्रजेत रमतो. (त्रीणीत्यादि) तीन ज्योति म्हणजे अग्नी, बाय, सूर्य यांना ज्याने निर्माण केलेले आहे. पदार्थ विद्येच्या उत्पत्तीसाठी या तीन गोष्टी मुख्य समजाव्या सर्व जगाचा व्यवहारही यामुळेच चालतो. (सः षोडशी) ज्या ईश्वराने सोळा कला उत्पन्न केलेल्या आहेत तो सोळा कलांनी युक्त आहे त्या कला अशा १] ईसण २] प्राण ३] श्रद्धा ४] आकाश ५] वायु ६] अग्नी ७] जल ८] पृथ्वी ९] इंद्रिये १०] मन ११] अन्न १२ वीर्य [पराक्रम] १३] तप [धर्मानुष्ठान] १४] मंत्र [वेदविद्या] १५] कर्मलोक—प्रयत्नस्थान [१६] इतर लोकांची नावे. या कलांमध्ये सर्व जग बसलेले आहे. व परमेश्वरामध्ये तर अनंत कला आहेत. त्याची उपासना करणे सोडून जो दुसऱ्याची उपासना करतो तो कधी ही सुख प्राप्त करू शकत नाही, एवढेच नव्हे तर नेहमी तो दुःखामध्ये राहतो. ॥१४॥

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    व्याख्यान

    भाषार्थ : याविषयी ऋग्वेदाचे प्रमाण आहे, की (तद्वि.) विष्णू अर्थात व्यापक परमेश्वर (परमं) अत्यंत उत्तम आनंदस्वरूप (पद) प्राप्त होण्यायोग्य अर्थात ज्याचे नाव मोक्ष आहे, त्याला (सूरय:) विद्वान लोक (सदा पश्यन्ति) सर्व काळी पाहतात तो सर्वांत व्याप्त असून स्थान, काल व वस्तूचा भेद नाही. अर्थात, या देशात आहे, त्या देशात नाही, या काळात होता, त्या काळात नाही, या वस्तूमध्ये आहे, त्या वस्तूमध्ये नाही, या कारणामुळे ते पद सर्वस्थानी सर्वांना प्राप्त होते. कारण तो ब्रह्म सर्व ठिकाणी परिपूर्ण आहे. यात हा दृष्टान्त आहे, की (दिवीव चक्षुराततम् ) जसा सूर्याचा प्रकाश आवरणरहित आकाशात व्याप्त असतो व जसे त्या प्रकाशात नेत्राची दृष्टी व्याप्त होते, याच प्रकारे परब्रह्म पदही स्वयंप्रकाश, सर्वत्र व्याप्त होत आहे. त्या पदाच्या प्राप्तीपेक्षा कोणतीही प्राप्ती उत्तम नाही. त्यासाठी चारही वेद त्याची प्राप्ती करविण्यासाठी विशेष प्रतिपादन करतात. याविषयी वेदान्तशास्त्रात व्यास मुनींचेही प्रमाण आहे. तत्तु समन्वयात् सर्व वेदवाक्यात ब्रह्माचेच विशेष प्रतिपादन केलेले आहे. कुठे कुठे साक्षातरूपानेच कधी कधी परंपरेने, याच कारणाने तो परब्रह्म वेदांचा परम अर्थ आहे. याविषयी यजुर्वेदाचेही प्रमाण आहे की- (यस्मान्न जा.) ज्या परब्रह्मापेक्षा (अन्य:) दुसरा कोणीही (पर:) उत्तम पदार्थ (जात:) प्रकट (नास्ति) अर्थात नाही (य आविवेश भु.) जो सर्व विश्वात व्याप्त होत आहे (प्रजापति: प्र.) तोच सर्व जगाचा पालनकर्ता व अध्यक्ष आहे ज्याने (त्रीणि ज्योतिाषि) अग्नी, सूर्य व विद्युत् या तीन ज्योतींचा प्रजेमध्ये प्रकाश होण्यासाठी (सचत) रचना करून संयुक्त केलेले आहे व ज्याचे नाव (षोडशी) आहे. अर्थात (१) ईक्षण जो यथार्थ विचार, (२) प्राण, सर्व विश्वाला धारण करणारा, (३) श्रद्धा-सत्यावर विश्वास, (४) आकाश, (५) वायू, (६) अग्नी, (७) जल, (८) पृथिवी, (९) इंद्रिय, (१०) मन अर्थात ज्ञान, (११) अन्न, (१२) वीर्य अर्थात बल व पराक्रम, (१३) तप अर्थात धर्मानुष्ठान सत्याचार (१४) मंत्र अर्थात वेदविद्या, (१५) कर्म अर्थात सर्व प्रयत्न, (१६) नाव अर्थात दृश्य व अदृश्य पदार्थाची संज्ञा यालाच सोळा कला म्हणतात. हे सर्व ईश्वरामध्येच आहे. त्यासाठी त्याला षोडशी म्हणतात. या षोडश कलांचे प्रतिपादन प्रश्नोपनिषदाच्या ६ व्या प्रश्नात केलेले आहे. यावरून कळते, की वेदांचा मुख्य अर्थ परमेश्वरच आहे व त्याच्यापासून पृथक हे जगत आहे. तो वेदांचा गौण अर्थ आहे. या दोन्हीमधून प्रमुखाचेच ग्रहण होते. त्यापासून हा निष्कर्ष काढता येतो, की वेदांचे मुख्य तात्पर्य परमेश्वराची प्राप्ती करविण्याची व प्रतिपादन करविण्याची आहे. त्या परमेश्वराच्या उपदेशरूपाने वेदाद्वारे कर्म, उपासना व ज्ञान या तीन कांडांचा हा लोक व परलोकाच्या व्यवहाराच्या फलांची सिद्धी व यथावत उपकार करण्यासाठी सर्व माणसांनी या चार विषयांच्या अनुष्ठानात पुरुषार्थ करावा. हाच मनुष्यदेह धारण करण्याचे फळ आहे.

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Than whom there is none other born more mighty, who hast pervaded all places. God, the giver of blessings to the whole world, maintains the three lustres in all substances. He is the giver of sixteen qualities.

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    Meaning

    None other ever existent is beyond Him, Him who pervades and transcends all the worlds of the universe. Father of His creation, ever rejoicing with His children, Lord of sixteen powers, full and complete, He illuminates the three lights of the world and reigns — the One sole and absolute Lord existent, omniscient and blissful. (The three lights are fire, electricity and the sun. The sixteen powers are: will, energy, faith, earth, water, fire, air, space, sense, mind, food, vitality, austerity, Word, life (jiva) and language).

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    Purport

    Greater than Him, equal to Him or superior to Him there has never been, neither is, nor shall ever be, hence He may be rightly called the God Almighty. He enters and pervades all spheres, all the objects and innumerable places of habitation. He is the Lord of all creatures. He abides [rests] in all creatures and amuses them all. He has created three lights i.e. fire, lightning and the sun. All these three should be considered as principal means for acquiring a knowledge of physical sciences and worldly behaviour.

    God has created sixteen skills [qualities or arts], therefore, He is called the Lord of sixteen skills. These sixteen skills are-1. Iksana-Reflection [Deliberation, proper thought] 2. Prana-Vitality, 3. Śradha-faith, 4. Akasa-space, 5. Vayu-air, 6. Agni-fire, 7. Jala-water, 8. Pithivi-earth, 9. Indriya-sense-organs, 10. Mana-the mind, 11. Anna-food, 12. Virya-vigour, 13. Tapa= penance, 14. Mantra-Vedic Hymns, 15. Karma-efforts [motion] and 16. Loka and Nama-the world and the names ka and NamaE' (13) in the world.

    The whole world is within these Kalas-qualities or skills. There are infinite skills in God. He who forgetting His worship, adores any other object, being or thing in His place, cannont attain peace and happiness, but he is always plunged in troubles, pains and sorrows.

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    Translation

    None is born mightier than He. He has pervaded through all the worlds. That creator God, having all the sixteen attributes, rejoicing in His own creation, maintains three great lights. (1)

    Notes

    See notes XXXII. 5.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ গৃহাশ্রমমিচ্ছদ্ভ্যো জনেভ্যঃ পরমেশ্বর এবোপাস্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    এখন গৃহাশ্রমের ইচ্ছুককে ঈশ্বরেরই উপাসনা করা উচিত, এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (য়স্মাৎ) যে পরমেশ্বর হইতে (পরঃ) উত্তম (অন্যঃ) এবং অন্য (ন) না (জাতঃ) হইয়াছে এবং (য়ঃ) যে পরমাত্মা (বিশ্বা) সমস্ত (ভুবনানি) লোকসমূহকে (আবিবেশ) ব্যাপ্ত হইতেছেন (সঃ) তিনি (প্রজয়া) সকল সংসার হইতে (সংররাণঃ) উত্তম দাতা হইয়া (ষোডশী) ইচ্ছা, প্রাণ, শ্রদ্ধা, পৃথিবী, জল, অগ্নি, বায়ু, আকাশ দশ ইন্দ্রিয়, মন, অন্ন, বীর্য্য, তপ, মন্ত্র, লোক ও নাম এই ষোল কলার স্বামী (প্রজাপতিঃ) সংসার মাত্রের স্বামী পরমেশ্বর (ত্রীণি) তিন (জ্যোতিষি) জ্যোতি অর্থাৎ সূর্য্য, বিদ্যুৎ ও অগ্নিকে (সচতে) সকল পদার্থে স্থাপিত করেন ॥ ৩৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- গৃহাশ্রমে ইচ্ছুক পুরুষদিগের উচিত যে, যিনি সর্বত্র ব্যাপ্ত, সকল লোকের রচনাকারী এবং ধারণকারী, ন্যায়কারী, সনাতন অর্থাৎ সর্বদা একইরকম থাকেন, সৎ অবিনাশী, চৈতন্য ও আনন্দময় নিত্য, শুদ্ধ, বুদ্ধ, মুক্তস্বভাব এবং সকল পদার্থ হইতে পৃথক থাকেন, ছোট হইতে ছোট, বড় হইতে বড় সর্বশক্তিমান পরমাত্মা যাহার অপেক্ষা কোন পদার্থ উত্তম বা যাঁহার সমান কেহই নহে, তাঁহার উপাসনা করিবে ॥ ৩৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়স্মা॒ন্ন জা॒তঃ পরো॑ऽঅ॒ন্যোऽঅস্তি॒ য়ऽআ॑বি॒বেশ॒ ভুব॑নানি॒ বিশ্বা॑ । প্র॒জাপ॑তিঃ প্র॒জয়া॑ সꣳররা॒ণস্ত্রীণি॒ জ্যোতী॑ᳬंষি সচতে॒ স ষো॑ড॒শী ॥ ৩৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়স্মান্নেত্যস্য বিবস্বান্ ঋষিঃ । পরমেশ্বরো দেবতা । ভুরিগার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    यस्मात् न, जातः,परः,अन्यः अस्ति = जसभन्दा ठूलो, तुल्य वा उत्तम न भयो, न छ अरू न कुनै कहिल्यै हुने छ तेसलाई परमात्मा भन्नु पर्दछ । जुन विश्वा भुवनानि = समस्त भुवन [लोक] सम्पूर्ण पदार्थ हरु को निवास्थान असंख्यात लोक हरु मा आविवेश प्रविष्ट भएर पूर्ण भईरहेछ, तेही ईश्वर प्रजापतिः = प्रजा को पति अर्थात् स्वामी हो । उही सबै प्रजया संरराणः प्रजालाई आनन्दित गरि रहेछ, तथा आफू सबै प्रजा मा रमी रहेछ । त्रीणीत्यादि= तीन ज्योती= अग्नी, वायु र सूर्य इनीहरु लाई जसले रचे को हो, सम्पूर्ण जगत् को व्यवहार तथा पदार्थ विद्या हरु को उत्पति का लागी ई तिनै लाई मुख्य सम्झनु पर्छ । सः षोडसी = सोह्र कला हरु लाई जसले उत्पन्न गरेको छ। यसले ईश्वर सोह्र कला ले पूर्ण कहलाउँछ । ती सोहू कला हुन्(१) ईक्षण [विचार] (२)प्राण (३) श्रद्धा (४) आकाश (५) वायु -
    (६)अग्नि (७)जल (८) पृथिवी (९) इन्द्रिय (१०) मन (११) अन्न (१२) वीर्य [पराक्रम] (१३) तप [ धर्मानुष्ठान] (१४) मन्त्र [वेदविद्या] (१५) कर्म=[चेष्टा] (१६) लोक र सम्पूर्ण लोक हरु का नाम एति कला हरु का माझ मा सबै जगत् छ, अरू परमेश्वर मा अनन्त कला हरु छन् । तेसको उपासना छोडेर जो मानिस अन्य को उपासना गर्दछ तेसले कहिल्यै पनि सुख प्राप्त गर्न सक्तैन अपितु सदा दुःख मा नै परी रहन्छ॥१४॥

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