अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
सूक्त - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिपदा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
सं राजा॑नो अगुः॒ समृ॒णान्य॑गुः॒ सं कु॒ष्ठा अ॑गुः॒ सं क॒ला अ॑गुः। सम॒स्मासु॒ यद्दुः॒ष्वप्न्यं॒ निर्द्वि॑ष॒ते दुः॒ष्वप्न्यं॑ सुवाम ॥
स्वर सहित पद पाठसम्। राजा॑नः। अ॒गुः॒। सम्। ऋ॒णानि॑। अ॒गुः॒। सम्। कु॒ष्ठाः। अ॒गुः॒। सम्। क॒लाः। अ॒गुः॒। सम्। अ॒स्मासु॑। यत्। दुः॒ऽस्वप्न्य॑म्। निः। द्वि॒ष॒ते। दुः॒ऽस्वप्न्य॑म्। सु॒वा॒म॒ ॥५७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं राजानो अगुः समृणान्यगुः सं कुष्ठा अगुः सं कला अगुः। समस्मासु यद्दुःष्वप्न्यं निर्द्विषते दुःष्वप्न्यं सुवाम ॥
स्वर रहित पद पाठसम्। राजानः। अगुः। सम्। ऋणानि। अगुः। सम्। कुष्ठाः। अगुः। सम्। कलाः। अगुः। सम्। अस्मासु। यत्। दुःऽस्वप्न्यम्। निः। द्विषते। दुःऽस्वप्न्यम्। सुवाम ॥५७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
विषय - संगृहीत दुःष्वप्न्य को द्विषत् में प्रसूत करना
पदार्थ -
१. जैसे (राजानः) = राजा लोग (सम् अगुः) = युद्ध-काल में एक-एक करके बहुत-से एकत्र हो जाते हैं। (ऋणानि सम् अगु:) = ऋण भी जुड़ते-जुड़ते बहुत-से एकत्र हो जाते हैं। (कुष्ठा:) = कुत्सित त्वचा के रोग भी (समगुः) = अचिकित्सित होने पर बढ़ते जाते हैं। (कलाः सम् अगु:) = कलाएँ जुड़ती-जुड़ती चन्द्रमा में पूर्णतया संगत हो जाती हैं। इसीप्रकार (अस्मासु) = हममें (यत्) = जो (दुःष्वप्न्य) = अशुभ स्वप्नों का कारणभूत तत्त्व (सम्) [अगात्] = संगत हो गया है, उस सब (दुःष्वप्न्यम्) = अशुभ स्वप्नों के कारणभूत तत्त्व को (द्विषते) = द्वेष करनेवाले पुरुष के निमित्त (निःसुवाम) = अपने से बाहर प्रेरित करते हैं।
भावार्थ - थोड़ा-थोड़ा करके वे तत्त्व हममें संगृहीत हो जाते हैं, जोकि अशुभ स्वप्नों के कारण बना करते हैं। हम उन्हें अपने से पृथक् करके द्वेष करनेवाले पुरुषों के लिए प्रेरित करते हैं।
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