अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
सूक्त - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
यथा॑ क॒लां यथा॑ श॒फं यथ॒र्णं सं॒नय॑न्ति। ए॒वा दुः॒ष्वप्न्यं॒ सर्व॒मप्रि॑ये॒ सं न॑यामसि ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑। क॒लाम्। यथा॑। श॒फम्। यथा॑। ऋ॒णम्। स॒म्ऽनय॑न्ति। ए॒व। दुः॒ऽस्वप्न्य॑म्। सर्व॑म्। अप्रि॑ये। सम्। न॒या॒म॒सि॒ ॥५७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा कलां यथा शफं यथर्णं संनयन्ति। एवा दुःष्वप्न्यं सर्वमप्रिये सं नयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठयथा। कलाम्। यथा। शफम्। यथा। ऋणम्। सम्ऽनयन्ति। एव। दुःऽस्वप्न्यम्। सर्वम्। अप्रिये। सम्। नयामसि ॥५७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
विषय - दुःष्वप्न्य का अप्रिय पुरुषों में संनयन
पदार्थ -
१. (यथा कलाम) = जैसे एक-एक कला-सोलहवाँ भाग करके, अथवा (यथा शफम्) = [गवादि पशुओं के चार पाँव, प्रत्येक पाँव के दो भाग] जैसे एक-एक शफ-आठवाँ भाग-करके (ऋणम्) = सारे ऋण को यथा (संनयन्ति) = जैसे उत्तमर्ण के लिए लौटा देते हैं, (एव) = इसी प्रकार (सर्वं दुःष्वप्न्य) = सब अशुभ स्वप्नों के कारणभूत वसुओं को [शरीर में मलबन्ध व मन में व्यर्थ की बातों के समावेश को] (अप्रिये) = प्रीतिरहित शत्रुभूत लोगों में (संनयामसि) = प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ - हम सतत प्रयत्न करके-निरन्तर थोड़ा-थोड़ा करते हुए सब अशुभ स्वप्नों के कारणभूत तत्वों को अपने से दूर करें। ये तत्व अप्रिय लोगों को प्रास हों।
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