Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 112

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 112/ मन्त्र 2
    सूक्त - सुकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-११२

    यद्वा॑ प्रवृद्ध सत्पते॒ न म॑रा॒ इति॒ मन्य॑से। उ॒तो तत्स॒त्यमित्तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वा॒ । प्र॒ऽवृ॒द्ध॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ । न । म॒रै॒ । इति॑ । मन्य॑से ॥ स॒तो इति॑ । तत् । स॒त्यम् । इत् । तव॑ ॥११२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वा प्रवृद्ध सत्पते न मरा इति मन्यसे। उतो तत्सत्यमित्तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वा । प्रऽवृद्ध । सत्ऽपते । न । मरै । इति । मन्यसे ॥ सतो इति । तत् । सत्यम् । इत् । तव ॥११२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 112; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (प्रवृद्ध) = ज्ञान के दृष्टिकोण से वृद्धि को प्राप्त हुए-हुए (सत्पते) = उत्तम कर्मों के रक्षक जीव । (यद् वा) = जब निश्चय से 'न मरा'-'मैं मरता नहीं। मैं तो अमर हूँ' (इति मन्यसे) = इसप्रकार तू जानता है तो (उत उ) = निश्चय से (तव) = तेरा (तत्) = वह अपने को अजरामर जानना (सत्यम् इत्) = सत्य ही है। २. अपने अमरत्व को पहचानना ही वास्तिवक सत्य को पाना है।

    भावार्थ - हम आने अमरत्व को पहचानकर शरीरादि से ऊपर उठें। यही ज्ञान हमें प्राकृतिक भोगों की तुच्छता को स्पष्ट करता हुआ उनके बन्धन में पड़ने से बचाएगा।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top