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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 112

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 112/ मन्त्र 3
    सूक्त - सुकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-११२

    ये सोमा॑सः परा॒वति॒ ये अ॑र्वा॒वति॑ सुन्वि॒रे। सर्वां॒स्ताँ इ॑न्द्र गच्छसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । सोमा॑स: । प॒रा॒ऽवति॑ । ये । अ॒र्वा॒ऽवति॑ । सु॒न्वि॒रे ॥ सर्वा॑न् । तान् । इ॒न्द्र॒ । ग॒च्छ॒सि॒ ॥११२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये सोमासः परावति ये अर्वावति सुन्विरे। सर्वांस्ताँ इन्द्र गच्छसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । सोमास: । पराऽवति । ये । अर्वाऽवति । सुन्विरे ॥ सर्वान् । तान् । इन्द्र । गच्छसि ॥११२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 112; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. ये (सोमास:) = जो सोमकण (परावति) = उस सदर मस्तिष्करूप धुलोक के निमित्त (सन्विरे) = उत्पन्न किये गये हैं, अथवा (ये) = जो (अर्वावति) = समीपस्थ इस शरीररूप पृथिवीलोक के निमित्त उत्पन्न किये गये हैं, हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (तान् सर्वान्) = उन सब सोमकणों को (गच्छसि) = प्राप्त होता है। २. अपने अमरत्व को समझकर विषयों से ऊपर उठने पर ही सोमकणों का रक्षण होता है। इनके रक्षण से ही मस्तिष्करूप द्युलोक दीप्त तथा शरीररूप पृथिवीलोक दृढ़ बनता है।

    भावार्थ - हम अपने अमरत्व को पहचानें और विषयों की तुच्छता को समझकर उनमें न फैंसते हुए सोमणों का रक्षण करें। इसप्रकार मस्तिष्क को दीस बनाएँ और शरीर को दृढ़ करें। सोम-रक्षण द्वारा तेजस्वी बननेवाला यह ऋषि 'भर्ग:' [तेजःपुञ्ज] होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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