Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 113

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
    सूक्त - भर्गः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-११३

    उ॒भयं॑ शृ॒णव॑च्च न॒ इन्द्रो॑ अ॒र्वागि॒दं वचः॑। स॒त्राच्या॑ म॒घवा॒ सोम॑पीतये धि॒या शवि॑ष्ठ॒ आ ग॑मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भय॑म् । शृ॒ण्व॑त् । च॒ । न॒: । इन्द्र॑: । अ॒र्वाक् । इ॒दम् । वच॑: ॥ स॒त्राच्या॑ । म॒घऽवा॑ । सोम॑ऽपीतये । धि॒या । शवि॑ष्ठ: । आ । ग॒म॒त् ॥११३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभयं शृणवच्च न इन्द्रो अर्वागिदं वचः। सत्राच्या मघवा सोमपीतये धिया शविष्ठ आ गमत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभयम् । शृण्वत् । च । न: । इन्द्र: । अर्वाक् । इदम् । वच: ॥ सत्राच्या । मघऽवा । सोमऽपीतये । धिया । शविष्ठ: । आ । गमत् ॥११३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 113; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (न:) = हमारे लिए (उभयम् इदं वचः) = प्रकृति व आत्मा दोनों का ज्ञान देनेवाले इस वेदवचन को (अर्वाक्) = अन्तर्हृदय में [हमारे अभिमुख] शृणवत् [अन्तर्भावितण्यर्थ] सुनाएँ। हृदयस्थ प्रभु से हम उन ज्ञान की बाणियों को सुन पाएँ जोकि प्रकृति व आत्मा का ज्ञान देनेवाली हैं। २. वह (शविष्ठः) = अतिशयेन शक्तिशाली (मघवा) = ज्ञानरूप ऐश्वर्यवाले प्रभु (सत्राच्या) = सत्य-ज्ञान के साथ गतिवाली-सत्यज्ञान को प्राप्त करानेवाली (धिया) = बुद्धि के साथ (आगमत्) = हमें प्राप्त हों। ये प्रभु (सोमपीतये) = सोम के रक्षण के लिए हों। सोम-रक्षण द्वारा ही वे हमें उस सूक्ष्मार्थग्राहिणी बुद्धि को प्राप्त कराएँगे जो हमें प्रकृति व आत्मा के तत्त्व को समझने के योग्य बनाएगी।

    भावार्थ - प्रभु हमें प्रकृति व आत्मा का ज्ञान देनेवाले वेदवचनों को सुनाएँ। सोम-रक्षण के द्वारा उस बुद्धि को प्राप्त कराएँ जोकि सूक्ष्म अर्थों के सत्यतत्त्व को जानने में समर्थ हो।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top