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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 39

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
    सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-३९

    व्यन्तरि॑क्षमतिर॒न्मदे॒ सोम॑स्य रोच॒ना। इन्द्रो॒ यदभि॑नद्व॒लम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒त् । मदे॑ । सोम॑स्य । रो॒च॒ना ॥ इन्द्र॑: । यत् । अभि॑नत् । व॒लम् ॥३९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यन्तरिक्षमतिरन्मदे सोमस्य रोचना। इन्द्रो यदभिनद्वलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । अन्तरिक्षम् । अतिरत् । मदे । सोमस्य । रोचना ॥ इन्द्र: । यत् । अभिनत् । वलम् ॥३९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 39; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (सोमस्य मदे) = सोम-रक्षण से जनित उल्लास के होने पर (अन्तरक्षिम्) = हृदयान्तरिक्ष को (रोचना) = ज्ञानदीप्यों (व्यतिरत्) = बढ़ाता है। सुरक्षित सोम ज्ञानानि का ईधन बनता है और हृदय ज्ञान के प्रकाश से दीस हो उठता है। २. यह सब तब होता है (यत्) = जब (इन्द्र:) = वे शत्रुविद्रावक प्रभु (वलम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (अभिनत्) = विदीर्ण कर देते हैं।

    भावार्थ - प्रभु-कृपा से हमारी वासना विनष्ट हो और हम सोम का रक्षण करते हुए हृदयान्तरिक्ष में ज्ञानदीप्ति का अनुभव करें।

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