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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 40

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४०

    अ॑नव॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति। ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒व॒द्यै: । अ॒भिद्यु॑ऽभि: । म॒ख: । सह॑स्वत् । अ॒र्च॒ति॒ ॥ ग॒णै: । इन्द्र॑स्य । काम्यै॑: ॥४०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति। गणैरिन्द्रस्य काम्यैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनवद्यै: । अभिद्युऽभि: । मख: । सहस्वत् । अर्चति ॥ गणै: । इन्द्रस्य । काम्यै: ॥४०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 40; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (मख:) = एक यज्ञशील पुरुष प्राणसाधना करता हुआ प्राणों के साथ (सहस्वत) = [बलोपेतं यथा स्यात्तथा सबलम् अर्चति] प्रभु का अर्चन करता है। अर्चना उपासक को सबल बनाती है। २. यह उपासक जिन प्राणों की साधना करता हुआ उपासना करता है वे प्राण (अनवद्यैः) = प्रशस्त हैं-हमें पापों से बचाते हैं, प्राणसाधक से कभी कोई निन्दनीय कर्म नहीं होता। (अभिद्यभि:) = ये ज्ञान-ज्योति की ओर ले जाते हैं। प्राणसाधना से ज्ञान दीप्त हो जाता है। ये प्राण (गणैः) = गणनीय व प्रशंसनीय है, (इन्द्रस्य काम्यै:) = जितेन्द्रिय पुरुष को सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं।

    भावार्थ - हम प्राणसाधना के साथ यज्ञशील बनते हुए प्रभु का अर्चन करें। यह अर्चना हमें प्रशस्त ज्योतिर्मय व सबल जीवनवाला बनाएगी।

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