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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 40

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४०

    इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्यु॒षा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ण । सम् । हि । दृक्ष॑से । स॒म्ऽज॒ग्मा॒न: । अबि॑भ्युषा ॥ म॒न्दू इति॑ । स॒मा॒नऽव॑र्चसा ॥४०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा। मन्दू समानवर्चसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रेण । सम् । हि । दृक्षसे । सम्ऽजग्मान: । अबिभ्युषा ॥ मन्दू इति । समानऽवर्चसा ॥४०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 40; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु-स्तवन करनेवाले हे उपासक ! तू (अबिभ्युषा) = उस भीतिरहित (इन्द्रेण) = सर्वशक्तिमान् प्रभु से (संजम्मान: हि) = संगत-सा हुआ-हुआ ही (संवृक्षसे) = सम्यक् दृष्टिगोचर होता है। उपासना उसे प्रभु के समीप लाती हुई प्रभु से मिला-सा देती है। 'यथा नद्यः स्यन्दमाना: समुद्रम्'। २. इसी वृत्ति में ये दोनों उपासक व उपास्य (मन्दू) = आनन्दमय होते हैं। प्रभु तो आनन्दस्वरूप हैं ही, जीव भी उसके आनन्द में भागी बन जाता है। (समानवर्चसा) = ये उपास्य व उपासक समान दीप्तिवाले हो जाते हैं। उपास्य की दौति से उपासक भी दीस हो उठता है।

    भावार्थ - उपासक प्रभु से संगत होकर निर्भय, आनन्दमय व दीप्तरूपवाला बन जाता है।

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