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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 40

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - मरुद्गणः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४०

    आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । अह॑ । स्व॒धाम् । अनु॑ । पुन॑: । ग॒र्भ॒ऽत्वम् । आ॒ऽई॒रि॒रे ॥ दधा॑ना: । नाम॑ । य॒ज्ञिय॑म् ॥४०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे। दधाना नाम यज्ञियम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । अह । स्वधाम् । अनु । पुन: । गर्भऽत्वम् । आऽईरिरे ॥ दधाना: । नाम । यज्ञियम् ॥४०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 40; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (आत्) = गतमन्त्र के अनुसार उपासना करने के एकदम बाद ही (अह) = निश्चय से (स्वधाम् अनु) = आत्मधारणशक्ति के अनुसार, अर्थात् जितना-जितना आत्मधारण करते हैं उतना-उतना (पुन:) = फिर (गर्भवम् एरिरे) = परमात्मा की गोद में होने की स्थिति को अपने में प्रेरित करते हैं। अपने को ये प्रभु की गोद में अनुभव करते हैं। इनका जप यही होता है 'अमृतोपस्तरणमसि, अमृतापिधानमसि'-अमृत प्रभो! आप ही हमारे उपस्तरण हो, आप ही अपिधान हो। २. ये उपासक उस प्रभु के (यज्ञियम् नाम) = पवित्र नाम को (दधाना:) = धारण करते हुए होते हैं। यह नाम जप उन्हें प्रेरणा देता है। इस प्रेरणा से वे भी प्रभु-जैसा बनने का प्रयत्न करते हैं।

    भावार्थ - उपासक आत्मधारणशक्ति के अनुपात में अपने को प्रभु की गोद में अनुभव करता है। यह प्रभु के पवित्र नामों का जप करता है। __इसप्रकार पवित्र जीवनवाला प्रशस्तेन्द्रिय यह उपासक 'गोतम' होता है-अत्यन्त प्रशस्त इन्द्रियोंवाला यह प्रभु-स्तवन करता है -

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