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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
सूक्त - चातन
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यातुधानक्षयण सूक्त
अ॑न्तर्दा॒वे जु॑हु॒ता स्वे॒तद्या॑तुधान॒क्षय॑णं घृ॒तेन॑। आ॒राद्रक्षां॑सि॒ प्रति॑ दह॒ त्वम॑ग्ने॒ न नो॑ गृ॒हाणा॒मुप॑ तीतपासि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त॒:ऽदा॒वे । जु॒हु॒त॒ । सु । ए॒तत् । या॒तु॒धा॒न॒ऽक्षय॑णम् । घृ॒तेन॑ । आ॒रात् । रक्षां॑सि । प्रति॑ । द॒ह॒ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । न । न॒: । गृ॒हाणा॑म् । उप॑ । ती॒त॒पा॒सि॒ ॒॥३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तर्दावे जुहुता स्वेतद्यातुधानक्षयणं घृतेन। आराद्रक्षांसि प्रति दह त्वमग्ने न नो गृहाणामुप तीतपासि ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त:ऽदावे । जुहुत । सु । एतत् । यातुधानऽक्षयणम् । घृतेन । आरात् । रक्षांसि । प्रति । दह । त्वम् । अग्ने । न । न: । गृहाणाम् । उप । तीतपासि ॥३२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
विषय - अग्निहोत्र द्वारा रक्षोदहन
पदार्थ -
१. (अन्तः दावे) = अग्नि में (एतत्) = इस (यातुधानाक्षयणम्) = पीड़ाकर रोग-कृमियों को नष्ट करनेवाली हवि को (घृतेन) = घृत के साथ (सुजहत) = सम्यक् आहुत करो। २. हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने। (त्वम्) = तू (रक्षांसि) = रोगकृमियों को (आरात् प्रतिदह) = सुदूर दग्ध कर दे और इसप्रकार (न: गृहाणाम्) = हमारे घरों का (न उपतीतपासि)-= सन्तापक नहीं होता है। अग्नि रोगकृमियों के विनाश के द्वारा हमारे घरों को स्वस्थ वातावरणवाला बनाता है।
भावार्थ -
हम अग्नि में घृत के साथ कृमिनाशक हविर्द्रव्यों को आहत करें। यह अग्नि रोगकृमियों के विनाश के द्वारा हमें सुखी करेगा।
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