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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यातुधानक्षयण सूक्त
अभ॑यं मित्रावरुणावि॒हास्तु॑ नो॒ऽर्चिषा॒त्त्रिणो॑ नुदतं प्र॒तीचः॑। मा ज्ञा॒तारं॒ मा प्र॑ति॒ष्ठां वि॑दन्त मि॒थो वि॑घ्ना॒ना उप॑ यन्तु मृ॒त्युम् ॥
स्वर सहित पद पाठअभ॑यम् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । इ॒ह । अ॒स्तु॒ । न॒: । अ॒र्चिषा॑ । अ॒त्त्रिण॑: । नु॒द॒त॒म् । प्र॒तीच॑: । मा । ज्ञा॒तार॑म् । मा । प्र॒ति॒ऽस्थाम् । वि॒द॒न्त॒ । मि॒थ: । वि॒ऽघ्ना॒ना: । उप॑ । य॒न्तु॒ । मृ॒त्युम् ॥३२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभयं मित्रावरुणाविहास्तु नोऽर्चिषात्त्रिणो नुदतं प्रतीचः। मा ज्ञातारं मा प्रतिष्ठां विदन्त मिथो विघ्नाना उप यन्तु मृत्युम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभयम् । मित्रावरुणौ । इह । अस्तु । न: । अर्चिषा । अत्त्रिण: । नुदतम् । प्रतीच: । मा । ज्ञातारम् । मा । प्रतिऽस्थाम् । विदन्त । मिथ: । विऽघ्नाना: । उप । यन्तु । मृत्युम् ॥३२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
विषय - 'ज्ञान, ऐक्य, अजय्यता', मिथो विघ्राना उपयन्तु मृत्युम् अभय
पदार्थ -
१. हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व नितेषता के दिव्य भावो! (इह) = यहाँ (न:) = हमारे राष्ट्र में (अभयम् अस्तु) = निर्भयता हो, किसी प्रकार के शत्रु के आक्रमण का भय न हो। ये मित्र और वरुण सब प्रजाओं का परस्पर एक्य और अविद्वेष (अर्चिषा) = तेजस्विता की ज्वाला से (अत्त्रिणः) = हमें खा जानेवाले शत्रुओं को (प्रतीचः नुदतम्) = पराङ्मुख करके भगा दें। प्रजाओं का परस्पर ऐक्य राष्ट्र को प्रबल व तेजस्वी बनाता है। उस तेज की ज्वाला में शत्रु भस्म हो जाते हैं। राष्ट्र में ऐक्य होने पर शत्रु आक्रमण का साहस ही नहीं करते। २. हमारे शत्रु (ज्ञातारं मा विदन्त) = ज्ञानी को मत प्राप्त करें-इन्हें कोई ज्ञानी नेता ही उपलब्ध न हो, (मा प्रतिष्ठाम्) = ये प्रतिष्ठा को प्राप्त न करें। इन्हें विजय का सम्मान प्राप्त न हो। ये (मिथः विघ्राना:) = परस्पर एक-दूसरे को विहत करते हुए (मृत्युम् उपयन्तु) = मृत्यु को प्राप्त करें।
भावार्थ -
हम में एक्य हो। यह ऐक्य हमें शत्रुओं के लिए अजय्य बना दे। हमारे शत्रु परस्पर लड़ते-झगड़ते स्वयं समाप्त हो जाएँ। इन्हें कोई ज्ञानी, एकता का बल प्राप्त करानेवाला नेता न मिले।
विशेष -
शत्रुओं का संघात करनेवाला यह व्यक्ति 'जाटिकायन' बनता है [जट संघाते]। यह प्रभु-स्तवन करता हुआ कहता है -