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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
    सूक्त - चातन देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यो अ॒स्य पा॒रे रज॑सः शु॒क्रो अ॒ग्निरजा॑यत। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒स्य । पा॒रे । रज॑स: । शु॒क्र: । अ॒ग्नि: । अजा॑यत । स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विष॑: ॥३४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अस्य पारे रजसः शुक्रो अग्निरजायत। स नः पर्षदति द्विषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अस्य । पारे । रजस: । शुक्र: । अग्नि: । अजायत । स: । न: । पर्षत् । अति । द्विष: ॥३४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (य:) = जो (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (तिग्मेन शोचिषा) = बड़ी तीव्र ज्ञानदीसि से रक्षांसि (निजूर्वति) = राक्षसीवृत्तियों को नष्ट करते है, २. (यः) = जो प्रभु (परस्याः परावतः) = अत्यन्त दूर देश से (धन्य तिर:) = [धन्व-अन्तरिक्ष-नि०१.३] अन्तरिक्ष को भी पार करके (अतिरोचते) = अतिशयेन देदीप्यमान है, ३. (य:) = जो प्रभु (विश्वा भुवना) = सब प्राणियों व लोकों को (अभि-विपश्यति) = आभिमुख्येन अलग-अलग देखता है (च) = तथा (संपश्यति) = मिलकर देखता है, अर्थात् वे प्रभु एक-एक प्राणी का अलग-अलग भी रक्षण करते हैं और समूहरूप में भी रक्षण करते हैं। ४, (य:) = जो (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (अस्य रजस: पारे) = इस लोकसमूह से परे (शुक्रः अजायत) = देदीप्यमान शुद्धस्वरूप में प्रादुर्भूत हो रहे हैं ('पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि'), (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (द्विषः अतिपर्षत्) = द्वेष की सब भावनाओं से पार करें।

    भावार्थ -

    हम प्रभु का स्मरण करें, सर्वत्र प्रभु की ज्योति को देखें, उसे ही सबका पालक जानें, उसे ही इस ब्रह्माण्ड से परे शुद्ध ज्योति के रूप में सोचें। यह स्मरण हमें देष की भावनाओं से ऊपर उठाएगा।

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