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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिरस्
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - दुःष्वप्ननाशन
प॒रोऽपे॑हि मनस्पाप॒ किमश॑स्तानि शंससि। परे॑हि॒ न त्वा॑ कामये वृ॒क्षां वना॑नि॒ सं च॑र गृ॒हेषु॒ गोषु॑ मे॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप॒र: । अप॑ । इ॒हि॒ । म॒न॒:ऽपा॒प॒ । किम् । अश॑स्तानि । शं॒स॒सि॒ । परा॑ । इ॒हि॒ । न । त्वा॒ । का॒म॒ये॒ । वृ॒क्षान् । वना॑नि । सम् । च॒र॒ । गृ॒हेषु॑ । गोषु॑ । मे॒ । मन॑: ॥४५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि। परेहि न त्वा कामये वृक्षां वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मनः ॥
स्वर रहित पद पाठपर: । अप । इहि । मन:ऽपाप । किम् । अशस्तानि । शंससि । परा । इहि । न । त्वा । कामये । वृक्षान् । वनानि । सम् । चर । गृहेषु । गोषु । मे । मन: ॥४५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
विषय - गृहेषु गोषु मे मनः
पदार्थ -
१. हे (मनस्पाप) = मन के पाप! मन में उत्पन्न होनेवाले पाप-विचार ! तू (परः अप इहि) = यहाँ से परे-दूर चला जा, (किम्) = क्यों तू (अशस्तानि) = अशुभ बातों को शंससि-प्रशंसित करता है। २. (परा इहि) = तू दूर ही चला जा। (त्वा न कामये) = मैं तुझे नहीं चाहता। (वृक्षान् वनानि) = संचर-तू वृक्षों व वनों में भटकनेवाला हो, (मे मनः) = मेरा मन तो (गृहेषु) = घरों में घर के कार्यों में और (गोषु) = गौओं में अथवा ज्ञान की वाणियों में लगा हुआ है। मुझे तेरे लिए अवकाश नहीं है।
भावार्थ -
हे अशुभ का शंसन करनेवाले मनस्पाप! तू मुझसे दूर चला जा। मेरा मन तो घर के कार्यों व गौओं में लगा है। मुझे तेरे लिए अवकाश नहीं। खाली व्यक्ति के मन में ही अशुभ भावों का उदय होता है।
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