अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
यत्ते॑ नि॒यानं॑ रज॒सं मृत्यो॑ अनवध॒र्ष्यम्। प॒थ इ॒मं तस्मा॒द्रक्ष॑न्तो॒ ब्रह्मा॑स्मै॒ वर्म॑ कृण्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । नि॒ऽयान॑म् । र॒ज॒सम् । मृत्यो॒ इति॑ । अ॒न॒व॒ऽध॒र्ष्य᳡म् । प॒थ: । इ॒मम् । तस्मा॑त् । रक्ष॑न्त: । ब्रह्म॑ । अ॒स्मै॒ । वर्म॑ । कृ॒ण्म॒सि॒ ॥२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते नियानं रजसं मृत्यो अनवधर्ष्यम्। पथ इमं तस्माद्रक्षन्तो ब्रह्मास्मै वर्म कृण्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । निऽयानम् । रजसम् । मृत्यो इति । अनवऽधर्ष्यम् । पथ: । इमम् । तस्मात् । रक्षन्त: । ब्रह्म । अस्मै । वर्म । कृण्मसि ॥२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
विषय - 'ब्रह्म' वर्म
पदार्थ -
१. हे (मृत्यो) = मृत्यु के देव! (यत्) = जो (ते) = तेरा (नियानम्) = [नियान्ति अत्र] मार्ग है, वह (रजसम्) = राजस्-रजोगुण की वृत्तियों से बना हुआ है। 'ईया-द्वेष-क्रोध'-ये सब रजोगुण को वृत्तियाँ मृत्यु की ओर ले जानेवाली हैं। (अनवधर्ष्यम्) = इस मृत्यु के मार्ग का किसी से भी धर्षण नहीं किया जा सकता। २. (इमम्) = इस व्यक्ति को (तस्मात् पथ:) = उस मार्ग से (रक्षन्त:) = रक्षित करते हुए हम (अस्मै) = इस पुरुष के लिए (ब्रह्म वर्म कृण्मसि) = ज्ञानरूप कवच देते हैं। इस कवच को धारण कर लेने पर यह राजस् वृत्तियों के-ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध के आक्रमण से बचा रहता है।
भावार्थ -
हम ज्ञान के कवच को धारण करके ईर्ष्या-द्वेष व क्रोध के आक्रमण से बचे रहें और दीर्घजीवी बन पाएँ।
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