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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 47
    ऋषिः - वैखानस ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    द्वे सृ॒तीऽअ॑शृणवं पितॄ॒णाम॒हं दे॒वाना॑मु॒त मर्त्या॑नाम्। ताभ्या॑मि॒दं विश्व॒मेज॒त्समे॑ति॒ यद॑न्त॒रा पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वेऽइति॒ द्वे। सृ॒तीऽइति॑ सृ॒ती। अ॒शृ॒ण॒व॒म्। पि॒तॄ॒णाम्। अ॒हम्। दे॒वाना॑म्। उ॒त। मर्त्या॑नाम्। ताभ्या॑म्। इ॒दम्। विश्व॑म्। एज॑त्। सम्। ए॒ति॒। यत्। अ॒न्त॒रा। पि॒तर॑म्। मा॒तर॑म्। च॒ ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वे सृतीऽअशृनवम्पितऋृणामहन्देवानामुत मर्त्यानाम् । ताभ्यामिदँविश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरम्मातरञ्च ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्वेऽइति द्वे। सृतीऽइति सृती। अशृणवम्। पितॄणाम्। अहम्। देवानाम्। उत। मर्त्यानाम्। ताभ्याम्। इदम्। विश्वम्। एजत्। सम्। एति। यत्। अन्तरा। पितरम्। मातरम्। च॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 47
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    भावार्थ -
    ( अहम् ) मैं ( मर्त्यानाम् ) मनुष्यों के लिये, उनके जीवन व्यतीत करने के ( द्वे सृती ) दो मार्ग ( अशृणवम् ) श्रवण करता हूँ । (पितृणाम ) एक पितरों का पितृयाण मार्ग (उत) और दूसरा (देवानाम् ) देव, विद्वान् मुमुक्षुओं का (यत्) जो भी (पितरं मातरं च अन्तरा) पिता और माता दोनों के बीच, संसर्ग से उत्पन्न ( इदम् ) यह (विश्वम् ) समस्त ( एजत् ) चर, संसार है वह ( ताभ्याम् ) उन दो मार्गों से ही (सम्-एति) सुखपूर्वक प्रयाण करता है । शत० १२ । ८ । १ । २१ ॥ अथवा - जीवों के दो उत्तम मार्ग सुने जाते हैं । एक 'देवयान' मार्ग और दूसरा 'पितृयाण' मार्ग । (उत) और तीसरा (मर्त्यानाम् ) मरणधर्मा जीवों का मार्ग है उक्त दोनों से जीव संसार उत्तम लोक को प्राप्त होता है । छान्दोग्य में तीन मार्ग बतलाये हैं:, जैसे- ( १ ) तद् य इत्थं विदुः ये चेमेऽरण्ये श्रद्धा तप इत्युपासते तेऽविषमभिसंभवन्ति स एनान् ब्रह्म गमय- त्येष देवयानः पन्थाः ॥ (२) अथ य इमे ग्रामे इष्टापूर्त्ते दत्तम् इत्युपासते ते धूममभिसंभवन्ति (३) अथैतयोः पथोर्न कतरेण च न । तानीमानि क्षुद्राण्यसकृदावर्त्तीनि भूतानि भवन्ति जायस्व स्त्रियस्वेत्येतत् तृतीयं स्थानं तेनासौलोको न संपूर्यते । ( १ ) जो ज्ञान प्राप्त करते हैं और अरण्य में श्रद्धा और तपरूप से ब्रह्म की उपासना करते हैं वे प्रकाश को प्राप्त होते हैं, वह उन्हें ब्रह्म को प्राप्त कराता है यह देवयानमार्ग है । (२) जो नगर, ग्राम में इष्ट आपूर्त्त, यज्ञ कूपादि निर्माण में दान धर्म की उपासना करते हैं वे 'धूम' को प्राप्त होते हैं यह पितृयाणमार्ग है । (३) जो इन दोनों से भिन्न मार्ग से जाते हैं, वे जीव क्षुद्र जन्तु हैं जो बार-बार आते हैं, वे 'जायस्व स्त्रियस्व' कहाते है । उनसे यह लोक पूर्ण नहीं होता ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पितरो देवताः । स्वराट् पंक्तिः । पचमः ॥

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