यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 14
ऋषिः - देवश्रवदेववातौ भारतावृषी
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
उ॒त्ता॒नाया॒मव॑ भरा चिकि॒त्वान्त्स॒द्यः प्रवी॑ता॒ वृष॑णं जजान।अ॒रु॒षस्तू॑पो॒ रुश॑दस्य॒ पाज॒ऽइडा॑यास्पु॒त्रो व॒युने॑ऽजनिष्ट॥१४॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ता॒नाया॑म्। अव॑। भ॒र॒। चि॒कि॒त्वान्। स॒द्यः। प्रवी॑तेति॒ प्रऽवी॑ता। वृष॑णम्। ज॒जा॒न॒ ॥ अ॒रु॒षस्तू॑प॒ इत्य॑रु॒षऽस्तू॑पः। रुश॑त्। अ॒स्य॒। पाजः॑। इडा॑याः। पु॒त्रः। व॒युने॑। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तानायामव भरा चिकित्वान्त्सद्यः प्रवीता वृषणञ्जजान । अरुषस्तूपो रुशदस्य पाजऽइडायास्पुत्रो वयुने जनिष्ट ॥
स्वर रहित पद पाठ
उत्तानायाम्। अव। भर। चिकित्वान्। सद्यः। प्रवीतेति प्रऽवीता। वृषणम्। जजान॥ अरुषस्तूप इत्यरुषऽस्तूपः। रुशत्। अस्य। पाजः। इडायाः। पुत्रः। वयुने। अजनिष्ट॥१४॥
विषय - राजा पृथ्वी और पति पत्नी के कर्तव्य ।
भावार्थ -
( उत्तानायाम् ) उत्तम रूप से विस्तृत पृथिवी में हे राजन् ! तू ( चिकित्वान् ) ज्ञानवान् होकर (अव भर) अपने अधीन प्रजा का भरण पोषण कर । इससे (प्रवीता) अच्छी प्रकार कामना युक्त स्त्री के समान प्रेम से बंधकर प्रजा भी (सद्यः) शीघ्र ही ( वृषणम् ) सब सुखों के वर्षक, वीर्यवान् राजा को (जजान) उत्पन्न करती है । वह (अरुपस्तूप :) हिंसा रहित ज्वालामय अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है । (अस्य) उसका (पाजः) पालन सामर्थ्य ( रुषत् ) शत्रुओं का नाशक होता है और वह ( इडायाः पुत्रः) पृथ्वी का पुत्र, पृथ्वीनिवासी पुरुषों को दुःखों से त्राण करने में समर्थ होकर (वयुने) उत्तम ज्ञान कर्त्तव्य कर्म में भी ( अजनिष्ट) सामर्थ्यवान् हो जाता है । (२) स्त्री पुरुष पक्ष में - ( अरुषस्तुप :) अपने पराक्रम से स्त्री को कष्टदायी न होकर पति (अस्य रुशत् पाजः ) अपने तेजोमय वीर्य को (चिकित्वान् उत्तानायाम् अव भर) रोगरहित, गृहस्थ उत्तान पत्नी में धारण करावे । वह (प्रवीता सद्यः वृपणं जनान) प्रेम से बद्ध होकर शीघ्र ही अग्नि को अरणि के समान वीर्यवान् पुत्र को उत्पन्न करे | वह कामना युक्त होकर (वृषणम् ) वीर्य सेचन में समर्थ पुरुष को प्राप्त कर पुत्र रूप से उत्पन्न करे । (इडायाः) उत्तम स्त्री या बीजारोपण योग्य भूमि के ( वयुने पुत्रः अजनिष्ट) गर्भाशय में वह तेजोरूप वीर्यं ही पुत्र रूप से उत्पन्न होता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - देवश्रवोदेववातौ भारतावृषी । अग्निर्देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal