यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 17
ऋषिः - नोधा ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
प्र वो॑ म॒हे महि॒ नमो॑ भरध्वमाङ्गू॒ष्यꣳ शवसा॒नाय॒ साम॑।येना॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॑ पद॒ज्ञाऽअर्च॑न्तो॒ऽअङ्गिरसो॒ गाऽअवि॑न्दन्॥१७॥
स्वर सहित पद पाठप्र। वः॒। म॒हे। महि॑। नमः॑। भ॒र॒ध्व॒म्। आ॒ङ्गू॒ष्य᳖म्। श॒व॒सा॒नाय॑। साम॑ ॥ येन॑। नः॒। पूर्वे॑। पि॒तरः॑। प॒द॒ज्ञा इति॑ पद॒ऽज्ञाः। अर्च॑न्तः। अङ्गि॑रसः। गाः। अवि॑न्दन् ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो महे महि नमो भरध्वमाङ्गूष्यँ शवसानाय साम । येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञाऽअर्चन्तो अङ्गिरसो गाऽअविन्दन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र। वः। महे। महि। नमः। भरध्वम्। आङ्गूष्यम्। शवसानाय। साम॥ येन। नः। पूर्वे। पितरः। पदज्ञा इति पदऽज्ञाः। अर्चन्तः। अङ्गिरसः। गाः। अविन्दन्॥१७॥
विषय - विद्वानों और नायक राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे विद्वान् पुरुषो ! (व:) आप लोग (शवसानाय) बल वृद्धि के इच्छुक (महे) महान् राष्ट्र के लिये ( आङ्गव्यम् ) घोषणा करने योग्य, कीर्तिजनक, (महि नमः) बड़ा भारी आदर एवं शत्रु नमाने में समर्थ बल और अन्नादि ऐश्वर्य और (साम ) साम, स्तुति वचन, ( प्र भरध्वम् ) प्रदान करो, (येन) जिससे (नः) हमारे (पूर्वे पितरः) श्रेष्ठ पालक जन (पदज्ञा:) पद अर्थात् ज्ञान योग्य तत्वों के जानने वाले (अंगिरसः) ज्ञानी और तेजस्वी पुरुष (अर्चन्तः) योग्य रूप से वर्त्तते हुए (गाः) नाना भूमियों, ज्ञानवाणियों और गौ आदि समृद्धियों को ( अविन्दन् ) प्राप्त करते हैं ।
परमेश्वर और आचार्य के पक्ष में - सर्वशक्तिमान परमेश्वर के लिये ( आंगूष्यं साम महि नमः प्र भरध्वम् ) आंगूष्य साम अर्थात् स्तुति योग्य सामगान और विजय प्रकट करो। जिसके बल में हमारे पूर्व के पालक, गुरुजन और (अंगिरसः) ज्ञानवान् पुरुष ( पदज्ञाः ) आत्मस्वरूप को जानने हारे होकर (अर्चन्तः) स्तुति करते हुए (गा:) वेदवाणियों को ज्ञान रश्मियों के समान प्राप्त करते और औरों को प्रदान करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नोधाः । इन्द्रः । निचृद् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
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