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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 32
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - रात्रिर्देवता छन्दः - पथ्या बृहती स्वरः - मध्यमः
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    आ रा॑त्रि॒ पार्थि॑व॒ꣳ रजः॑ पि॒तुर॑प्रायि॒ धाम॑भिः।दि॒वः सदा॑सि बृह॒ती वि ति॑ष्ठस॒ऽआ त्वे॒षं व॑र्त्तते॒ तमः॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। रा॒त्रि॒। पार्थि॑वम्। रजः॑। पि॒तुः। अ॒प्रा॒यि॒। धाम॑भि॒रिति॒ धाम॑ऽभिः ॥ दि॒वः। सदा॑सि। बृ॒ह॒ती। वि। ति॒ष्ठ॒से॒। आ। त्वे॒षम्। व॒र्त्त॒ते॒। तमः॑ ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रात्रि पर्थिवँ रजः पितुरप्रायि धामभिः । दिवः सदाँसि बृहती वि तिष्ठस आ त्वेषँवर्तते तमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। रात्रि। पार्थिवम्। रजः। पितुः। अप्रायि। धामभिरिति धामऽभिः॥ दिवः। सदासि। बृहती। वि। तिष्ठसे। आ। त्वेषम्। वर्त्तते। तमः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 32
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    भावार्थ -
    हे (रात्रि ) रात्रि के समान समस्त प्रजाओं को सुख देने वाली ! सबको दान एवं वेतनादि देने वाली राजशक्ते ! ( पार्थिवम् ) पृथिवी का (रजः) समस्त लोक ( पितुः) पालन करने वाले वायु और सूर्य के समान तेजस्वी बलवान् पुरुष के (धामभिः) धारण सामर्थ्यो और तेजों, पराक्रमों से (अप्रायि) पूर्ण रहे और तू (बृहती) बड़ी शक्ति वाली होकर (दिवः सदांसि ) उप:काल जिस प्रकार आकाश में फैलता है उसी प्रकार राजसभा के (सदांसि) नाना अधिकार पदों पर (वितिष्ठसे) विशेष रूप से स्थिर रह और (तमः) अन्धकार जैसे सर्वत्र फैल कर आंखों को निर्बल कर देता है और ( त्वेषम् ) प्रकाश जैसे सर्वत्र फैल कर प्राणियों को सामर्थ्यवान् करता है उसी प्रकार हे राजशक्ते ! तेरा ( स्वेपं तमः ) अति तेजस्वी रूप मित्रगण को अधिक सामर्थ्यवान् और शत्रुओं को निर्बल करने वाला बल (आवर्त्तते) सर्वत्र फैले । यहां राज्य प्रबन्ध करने वाली शक्ति 'रात्रि' शब्द से कही गयी है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कशिपा नाम भरद्वाजकन्या ऋषिका । रात्रिर्देवता । पथ्या बृहती । मध्यमः ॥

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