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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वैश्वानरः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वद्भि॒या विश॑ आय॒न्नसि॑क्नीरसम॒ना जह॑ती॒र्भोज॑नानि। वैश्वा॑नर पू॒रवे॒ शोशु॑चानः॒ पुरो॒ यद॑ग्ने द॒रय॒न्नदी॑देः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वत् । भि॒या । विशः॑ । आ॒य॒न् । असि॑क्नीः । अ॒स॒म॒नाः । जह॑तीः । भोज॑नानि । वैश्वा॑नर । पू॒रवे॑ । शोशु॑चानः । पुरः॑ । यत् । अ॒ग्ने॒ । द॒रय॑न् । अदी॑देः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वद्भिया विश आयन्नसिक्नीरसमना जहतीर्भोजनानि। वैश्वानर पूरवे शोशुचानः पुरो यदग्ने दरयन्नदीदेः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वत्। भिया। विशः। आयन्। असिक्नीः। असमनाः। जहतीः। भोजनानि। वैश्वानर। पूरवे। शोशुचानः। पुरः। यत्। अग्ने। दरयन्। अदीदेः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स परमेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे वैश्वानराग्ने ! यद्यस्त्वं दुःखानि दरयन् पूरवे शोशुचानः पुरोऽदीदेस्तस्मात् त्वद्भियाऽसिक्नीरसमना भोजनानि जहतीर्विश आयन् ॥३॥

    पदार्थः

    (त्वत्) तव सकाशात् (भिया) भयेन (विशः) प्रजाः (आयन्) मर्यादामायान्तु (असिक्नीः) रात्रीः। असिक्नीति रात्रिनाम। (निघं०१.७) (असमनाः) पृथक् पृथग्वर्त्तमानाः (जहतीः) पूर्वामवस्थां त्यजन्तीः (भोजनानि) भोक्तव्यानि पालनानि वा (वैश्वानर) सर्वत्र विराजमान (पूरवे) मनुष्याय (शोशुचानः) पवित्रं विज्ञानम् [ददन्] (पुरः) पुरस्तात् (यत्) यः (अग्ने) सूर्य इव स्वप्रकाश (दरयन्) दुःखानि विदारयन् (अदीदेः) प्रकाशयेः ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! (भीषास्माद् वातः पवते भीषोदेति सूर्यः। भीषास्मादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम इति कठवल्ल्युपनिषदि (तुलना-कठोप०२.६.३, तैत्तिरोयोप० ब्र० वल्ली, अनुवाक ८.१) परमेश्वरस्य सत्यन्यायभयात् सर्वे जीवा अधर्माद्भीत्वा धर्मे रुचिं कुर्वन्ति यस्य प्रभावात्पृथिवी सूर्यादयो लोकाः स्वस्वपरिधौ नियमेन भ्रमन्ति स्वस्वरूपं धृत्वा जगदुपकुर्वन्ति स एव परमात्मा सर्वैर्मनुष्यैर्ध्येयः ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वैश्वानर) सर्वत्र विराजमान (अग्ने) सूर्य के तुल्य प्रकाशस्वरूप ! (यत्) जो आप दुःखों को (दरयन्) विदीर्ण करते हुए (पूरवे) मनुष्य के लिये (शोशुचानः) पवित्रविज्ञान को (पुरः) पहिले (अदीदेः) प्रकाशित करें इससे (त्वत्) आपके (भिया) भय से (असिक्नीः) रात्रियों के प्रति (असमनाः) पृथक्-पृथक् वर्त्तमान (भोजनानि) भोगने योग्य वा पालन और (जहतीः) अपनी पूर्वावस्था को त्यागती हुई (विशः) प्रजा (आयन्) मर्यादा को प्राप्त हों ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर के भय से वायु आदि पदार्थ अपने-अपने काम में नियुक्त होते हैं, उसके सत्य-न्याय के भय से सब जीव अधर्म से भय कर धर्म में रुचि करते हैं। जिसके प्रभाव से पृथिवी सूर्य्य आदि लोक अपनी अपनी परिधि में नियम से भ्रमते हैं, अपने स्वरूप का धारण कर जगत् का उपकार करते हैं, वही परमात्मा सब को ध्यान करने योग्य है ॥३॥

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    विषय

    मुक्तिदाता प्रभु ।

    भावार्थ

    हे ( वैश्वानर ) समस्त मनुष्यों के हृदयों में विराजमान, सबके हितू ! हे ( अग्ने ) सबके पूर्व विद्यमान ! अग्निवत् स्वयंप्रकाश, सर्वप्रकाशक ( यत् ) जो ( पूरवे ) मनुष्यमात्र के लिये ( शोशुचानः ) प्रकाशक ज्ञानरूप में प्रकाश करता हुआ, ( पुरः दरयन् ) ज्ञान-वज्र से देह रूप आत्मा के पुरों अर्थात् देह-बन्धनों को काटता हुआ ( अदीदे: ) ज्ञान को प्रकाशित करता है ( त्वद् भिया ) तेरे ही भय से ( असिक्नीः ) रात्रि के समान अन्धकारमय दशाओं को प्राप्त (विशः) जीव प्रजाएं भी ( असमना ) एक समान चित्त न होकर ( भोजनानि जहती: ) नाना भोग्य पदार्थों को त्याग कर ( आयन् ) तेरी शरण आती हैं । वीर राजा के पक्ष में - वीर राजा तेजस्वी होकर ( पुरः दरयन् अदीदेः ) शत्रु के किलों, नगरों को तोड़ता हुआ प्रताप से चमकता है उस में भय से शत्रु सेनाएं भोजनों तक त्याग कर (असमनाः ) संग्राम छोड़ कर ( असिक्नी: आयन् ) अन्धकारमय गुफाओं का आश्रय लेती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता॥ छन्दः –१, ४ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५, ७ स्वराट् पंक्तिः। ६ पंक्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु का भय

    पदार्थ

    [१] हे (वैश्वानर) = विश्वनर हित- सब मनुष्यों का कल्याण करनेवाले प्रभो ! (असिक्नी:) = [असिक्नी-night रात्रि] रात्रि के समान अन्धकारमय जीवनवाली (असमनाः) = भ्रान्त चित्तवाली, विषयों में भटकती हुई (विशः) = प्रजाएँ (त्वद् भिया) = आपके भय से (भोजनानि जहतीः) = भोगों का परित्याग करती हुई (आयन्) = आपके समीप प्राप्त होती हैं। प्रभु का स्मरण उनके लिये अंकुश के समान हो जाता है, वे असिक्नी न रहकर सित [शुभ्र] जीवनवाली बनती हैं, विषयों में भटकना छोड़कर प्रभु उपासन में प्रवृत्त होती हैं। [२] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (पूरवे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले पुरुष के लिये (शोशुचान:) = दीप्त होते हुए, पवित्रता को करते हुए (यत्) = जब (पुरः) = काम-क्रोध-लोभ की वृत्तियों को (दरयन्) = विदीर्ण करते हैं तो (अदीदे:) = चमक उठते हैं। 'पूरु' का हृदय आपके प्रकाश से प्रकाशित हो उठता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का स्मरण हमारे लिये अंकुश का काम करता है और हम भोगों को परे फेंककर विषयों में भटकने को छोड़कर शुभ्र जीवनवाले बन जाते हैं। काम-क्रोध-लोभ का विध्वंस होकर हमारा हृदय प्रकाशित हो उठता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्या परमेश्वराच्या भयाने वायू इत्यादी पदार्थ आपापल्या कामांत नियुक्त होतात, त्याच्या सत्य न्यायाला जाणून सर्व जीव अधर्माला भिऊन धर्माने वागतात, ज्याच्या प्रभावाने पृथ्वी, सूर्य इत्यादी लोक आपापल्या परिधीत नियमाने भ्रमण करतात व आपले स्वरूप धारण करून जगावर उपकार करतात तोच परमात्मा सर्वांनी ध्यान करण्यायोग्य आहे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    By virtue of your awe and pressure of law, human communities move forward, each in its own way, leaving behind the sufferance of their experiences. O Vaishvanara Agni, shine on illuminating the people as you have ever been shining and eliminating the sufferings of mankind.

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