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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 100

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 100/ मन्त्र 1
    सूक्त - यमः देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दुःस्वप्न नाशन

    प॒र्याव॑र्ते दुः॒ष्वप्न्या॑त्पा॒पात्स्वप्न्या॒दभू॑त्याः। ब्रह्मा॒हमन्त॑रं कृण्वे॒ परा॒ स्वप्न॑मुखाः॒ शुचः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒रि॒ऽआव॑र्ते । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । पा॒पात् । स्वप्न्या॑त् । अभू॑त्या: । ब्रह्म॑ । अ॒हम् । अन्त॑रम् । कृ॒ण्वे॒ । परा॒ । स्वप्न॑ऽमुखा: । शुच॑: ॥१०५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्यावर्ते दुःष्वप्न्यात्पापात्स्वप्न्यादभूत्याः। ब्रह्माहमन्तरं कृण्वे परा स्वप्नमुखाः शुचः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परिऽआवर्ते । दु:ऽस्वप्न्यात् । पापात् । स्वप्न्यात् । अभूत्या: । ब्रह्म । अहम् । अन्तरम् । कृण्वे । परा । स्वप्नऽमुखा: । शुच: ॥१०५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 100; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    मैं (दुःस्वप्न्यात्) बुरे स्वप्न से उत्पन्न हुए (पापात्) पाप से (परि भाव) परे रहूँ। और (अभूत्याः) अनिष्ट के (स्वपन्यात्) संकल्प से उत्पन्न (पापात्) पाप से भी परे रहूँ। (अहम्) मैं (अन्तरं) दोष और अपने बीच से (ब्रह्म) पवित्र ईश्वर के नाम स्मरण या पवित्र मन्त्र को (कृण्वे) पाप का बाधक बना लेता हूँ, इससे (स्वप्न-मुखाः) असत्संकल्पों से उत्पन्न होने वाली (शुचः) हृदय की संतापजनक प्रवृत्तियां (परा कृण्वे) दूर कर दूं। अथवा उस पवित्र संकल्प द्वारा (स्वप्न-सुखाः) स्वप्न के उपकारी (शुचः) दुर्विचारों को (परा कृण्वे) दूर कर दूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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