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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 99

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - वेदिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - वेदी सूक्त

    परि॑ स्तृणीहि॒ परि॑ धेहि॒ वेदिं॒ मा जा॒मिं मो॑षीरमु॒या शया॑नाम्। हो॑तृ॒षद॑नं॒ हरि॑तं हिर॒ण्ययं॑ नि॒ष्का ए॒ते यज॑मानस्य लो॒के ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । स्तृ॒णी॒हि॒ । परि॑ । धे॒हि॒ । वेदि॑म् । मा । जा॒मिम् । मो॒षी॒: । अ॒मु॒या । शया॑नाम् । हो॒तृ॒ऽसद॑नम् । हरि॑तम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । नि॒ष्का: । ए॒ते । यज॑मानस्‍य । लो॒के ॥१०४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि स्तृणीहि परि धेहि वेदिं मा जामिं मोषीरमुया शयानाम्। होतृषदनं हरितं हिरण्ययं निष्का एते यजमानस्य लोके ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । स्तृणीहि । परि । धेहि । वेदिम् । मा । जामिम् । मोषी: । अमुया । शयानाम् । होतृऽसदनम् । हरितम् । हिरण्ययम् । निष्का: । एते । यजमानस्‍य । लोके ॥१०४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 99; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे यजमान गृहस्थ ! जिस प्रकार यज्ञकी वेदि को कुशाओं से आच्छादित किया जाता है उसी प्रकार (वेदिम्) पुत्र आदि सन्तान प्राप्त करने के साधन स्वरूप इस स्त्री को (परि स्तृणीहि) सब प्रकार से उसका धारण और पोषण कर। (अमुया*) इस (शयानां) सोती हुई (जामिं) सन्तान उत्पन्न करने हारी स्त्री को (मा मोषीः) कभी मत छल, उससे कुछ मत छिपा, उससे चोरी करके कुछ मत कर। (होतृ-सदनं) होता, सब के देने वाले परमेश्वर या प्रजापति का सदन, स्थान (हरितम्) बड़ा मनोहर, हरियाले धान्यों से पूर्ण और (हिरण्यम्) सुवर्ण से भरपूर हितकारी और रमण योग्य है। और (यजमानस्य) यज्ञ करने हारे, गृहस्थ सम्पादन करने वाले पुरुष (लोके) स्थान में भी (एते) ये नाना प्रकार के (निष्काः) सुवर्ण के सिक्के हैं। जब सब धन धान्य से पूर्ण और सुवर्ण से भरपूर ईश्वर के खजाने हैं और गृहस्थ के घर में भी नाना धन हैं तो उसे चाहिये कि अपनी स्त्री को अच्छे वस्त्र पहनावे और उत्तम भोजन खिलावे, पुष्ट करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। जाभिभूता वेदिर्मन्त्रोक्ता देवता। उत्तरा भुरिक् त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्॥

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