Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
अ॒यम॒ग्निः सत्प॑तिर्वृ॒द्धवृ॑ष्णो र॒थीव॑ प॒त्तीन॑जयत्पु॒रोहि॑तः। नाभा॑ पृथि॒व्यां निहि॑तो॒ दवि॑द्युतदधस्प॒दं कृ॑णुतां॒ ये पृ॑त॒न्यवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । अ॒ग्नि: । सत्ऽप॑ति:। वृ॒ध्दऽवृ॑ष्ण: । र॒थीऽइ॑व । प॒त्तीन् । अ॒ज॒य॒त् । पु॒र:ऽहि॑त: । नाभा॑ । पृथि॒व्याम् । निऽहि॑त: । दवि॑द्युतत् । अ॒ध॒:ऽप॒दम् । कृ॒णु॒ता॒म् । ये । पृ॒त॒न्यव॑: ॥६४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमग्निः सत्पतिर्वृद्धवृष्णो रथीव पत्तीनजयत्पुरोहितः। नाभा पृथिव्यां निहितो दविद्युतदधस्पदं कृणुतां ये पृतन्यवः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । अग्नि: । सत्ऽपति:। वृध्दऽवृष्ण: । रथीऽइव । पत्तीन् । अजयत् । पुर:ऽहित: । नाभा । पृथिव्याम् । निऽहित: । दविद्युतत् । अध:ऽपदम् । कृणुताम् । ये । पृतन्यव: ॥६४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
विषय - जितेन्द्रिय राजा और आचार्य
भावार्थ -
(भयम्) यह (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वर और आचार्य, राजा, (सत्-पतिः) सज्जन पुरुषों और सद् ब्रह्मचारियों का पालक, (वृद्ध-वृष्णः) महाबलशाली, आयु में वृद्ध, और अर्थात् ज्ञानवृद्ध-पुरुषों द्वारा बलवान्, (पुरः-हित) मुखिया और सब के आगे प्रधान पद पर स्थापित होकर, (रथी इव) रथी जिस प्रकार (पत्तीन्) पैदल सैनिकों पर (अजयत्) विजय पा लेता है उसी प्रकार यह भी विषय वासना रूपी शत्रुओं तथा देश के शत्रुओं पर विजय पाए हुए है। (पृथिव्यां) विस्तृत संसार की (नाभा) नाभि अर्थात् केन्द्र में (निहितः) स्थापित सूर्य जिस प्रकार (दविद्युतत्) निरन्तर सब को प्रकाशित कर रहा है इसी प्रकार परमेश्वर सब संसार को प्रकाशित करता है, आचार्य शिष्यगण को विद्या से प्रकाशित करता है और राजा राष्ट्र में ज्ञान का प्रकाश करता है। (ये) जो (पृतत्यवः) कामादि दुश्मन और हमारे देश के दुश्मन पृतना = सेना लेकर हम पर चढ़ आवें, (अधः पदं कृणुताम्) उन्हें आप नीचा करें, कुचलें।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कश्यप मारीच ऋषिः। अग्निर्देवता। जगती छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें