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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - गृध्रौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
उद॑स्य श्या॒वौ वि॑थु॒रौ गृध्रौ॒ द्यामि॑व पेततुः। उ॑च्छोचनप्रशोच॒नाव॒स्योच्छोच॑नौ हृ॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒स्य॒ । श्या॒वौ । वि॒थु॒रौ । गृध्रौ॑ । द्यामऽइ॑व । पे॒त॒तु॒: । उ॒च्छो॒च॒न॒ऽप्र॒शो॒च॒नौ । अ॒स्य । उ॒त्ऽशोच॑नौ । हृ॒द: ॥१००.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदस्य श्यावौ विथुरौ गृध्रौ द्यामिव पेततुः। उच्छोचनप्रशोचनावस्योच्छोचनौ हृदः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । अस्य । श्यावौ । विथुरौ । गृध्रौ । द्यामऽइव । पेततु: । उच्छोचनऽप्रशोचनौ । अस्य । उत्ऽशोचनौ । हृद: ॥१००.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
विषय - जीव के आत्मा और मनकी ऊर्ध्वगति।
भावार्थ -
(अस्य) इस जीव के (विथुरौ) व्यथादायी या व्यथित (गृध्रौ) लोकान्तर की आकांक्षा करने वाले आत्मा और मन अथवा आत्मा और प्राण (श्यावौ गृध्रौ इव) दो श्यामरंग के गीध जिस प्रकार (द्याम्) आकाश में उड़ते हैं उस प्रकार अत्यन्त गतिशील, तीव्र वेगवान् होकर (उत् पेततुः) ऊपर उठते हैं। दोनों उस समय उसके (हृदः) हृदय को अपने तीव्रवेग और ताप से (उत्-शोचनौ) अति अधिक कान्ति देने वाले होते हैं इसलिये उनका नाम भी (उत्शोचन-प्रशोचनौ) उत्शोचन और प्रशोचन हैं। वे दोनों उस समय हृदय के अग्रभाग को प्रदीप्त करते हैं। और शरीर को दोनों संतप्त करते हैं।
“तस्य हैतस्य हृदयमग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्कामति। चक्षुषो वा मूर्ध्नो वान्येभ्योवा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति। प्राणमनु उत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति इत्यादि।” बृहदारण्यकोपनिषत् ४। ४। २॥
देहावसानकाल में आत्मा की समस्त शक्तियां आमा में लीन होकर एक हो जाती हैं। और तब हृदय का अग्रभाग प्रकाशित होता है। वह आत्मपुञ्ज हृदय या आंख या सिर भाग से निकल जाता है। और आत्मा के साथ इन्द्रियगण भी शरीर को छोड़ देते हैं बृहदारण्यक का यह स्थल विशेष दर्शनीय है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कपिञ्जल ऋषिः। गृध्रौ देवते। अनुष्टुप् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥
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