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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दस्यू॒ञ्छिम्यूँ॑श्च पुरुहू॒त एवै॑र्ह॒त्वा पृ॑थि॒व्यां शर्वा॒ नि ब॑र्हीत्। सन॒त्क्षेत्रं॒ सखि॑भिः श्वि॒त्न्येभि॒: सन॒त्सूर्यं॒ सन॑द॒पः सु॒वज्र॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दस्यू॑न् । शिम्यू॑न् । च॒ । पु॒रु॒ऽहू॒तः । एवैः॑ । ह॒त्वा । पृ॒थि॒व्याम् । शर्वा॑ । नि । ब॒र्ही॒त् । सन॑त् । क्षेत्र॑म् । सखि॑ऽभिः । श्वि॒त्न्येभिः॑ । सन॑त् । सूर्य॑म् । सन॑त् । अ॒पः । सु॒ऽवज्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दस्यूञ्छिम्यूँश्च पुरुहूत एवैर्हत्वा पृथिव्यां शर्वा नि बर्हीत्। सनत्क्षेत्रं सखिभिः श्वित्न्येभि: सनत्सूर्यं सनदपः सुवज्र: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दस्यून्। शिम्यून्। च। पुरुऽहूतः। एवैः। हत्वा। पृथिव्याम्। शर्वा। नि। बर्हीत्। सनत्। क्षेत्रम्। सखिऽभिः। श्वित्न्येभिः। सनत्। सूर्यम्। सनत्। अपः। सुऽवज्रः ॥ १.१००.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    य सुवज्रः पुरुहूतः शर्वा सभाद्यध्यक्षः श्वित्न्येभिः सखिभिरेवैः सहितो दस्यून् हत्वा शिम्यूञ्छान्तान्धार्मिकान् मनुष्यान् भृत्यादींश्च सनत् दुःखानि निबर्हीत् पृथिव्यां क्षेत्रं सूर्य्यमपः सनद्रक्षेत्सः सर्वैः सनत्सेवनीयः ॥ १८ ॥

    पदार्थः

    (दस्यून्) दुष्टान् (शिम्यून्) शान्तान् प्राणिनः (च) मध्यस्थप्राणिसमुच्चये (पुरुहूतः) बहुभिः पूजितः (एवैः) प्रशस्तज्ञानैः कर्मभिर्वा (हत्वा) (पृथिव्याम्) स्वराज्ययुक्तायां भूमौ (शर्वा) सर्वदुःखहिंसकः (नि) नितराम् (बर्हीत्) बर्हति। अत्र वर्त्तमाने लुङडभावश्च। (सनत्) सेवेत (क्षेत्रम्) स्वानिवासस्थानम् (सखिभिः) सुहृद्भिः (श्वित्न्येभिः) श्वेतवर्णयुक्तैस्तेजस्विभिः (सनत्) सदा (सूर्यम्) सवितारं प्राणं वा (सनत्) यथावन्निरन्तरम् (अपः) जलानि (सुवज्रः) शोभनो वज्रः शस्त्राऽस्त्रसमूहोऽस्य सः ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    यः सज्जनैः सहितोऽधर्म्यं व्यवहारं निवार्य्य धर्म्यं प्रचार्य्य विद्यायुक्त्या सिद्धं संसेव्य प्रजादुःखानि हन्यात्स सभाद्यध्यक्षः सर्वैर्मन्तव्यो नेतरः ॥ १८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

    पदार्थ

    (सुवज्रः) जिसका श्रेष्ठ अस्त्र और शस्त्रों का समूह और (पुरुहूतः) बहुतों ने सत्कार किया हो वह (शर्वा) समस्त दुःखों का विनाश करनेवाला सभा आदि का अधीश (श्वित्न्येभिः) श्वेत अर्थात् स्वच्छ तेजस्वी (सखिभिः) मित्रों के साथ और (एवैः) प्रशंसित ज्ञान वा कर्मों के साथ (दस्यून्) डाकुओं को (हत्वा) अच्छे प्रकार मार (शिम्यून्) शान्त धार्मिक सज्जनों (च) और भृत्य आदि को (सनत्) पाले, दुःखों को (नि, बर्हीत्) दूर करे, जो (पृथिव्याम्) अपने राज्य से युक्त भूमि में (क्षेत्रम्) अपने निवासस्थान (सूर्यम्) सूर्यलोक, प्राण (अपः) और जलों को (सनत्) सेवे, वह सबको (सनत्) सदा सेवने के योग्य होवे ॥ १८ ॥

    भावार्थ

    जो सज्जनों से सहित सभापति अधर्मयुक्त व्यवहार को निवृत्त और धर्म्य व्यवहार का प्रचार करके विद्या की युक्ति से सिद्ध व्यवहार का सेवन कर प्रजाके दुःखों को नष्ट करे, वह सभा आदि का अध्यक्ष सबको मानने योग्य होवे, अन्य नहीं ॥ १८ ॥

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    विषय

    दस्यु व शिम्यु का वध

    पदार्थ

    १. (पुरुहूतः) = बहुतों से पुकारा जानेवाला अथवा पालन और पूरण करनेवाली है , पुकार [आराधना] जिसकी ऐसा पुकार है , वह प्रभु (दस्यून्) = औरों का उपक्षय करनेवाले (च) = और (शिम्यून्) = [शमयितॄन्] वध कर देनेवाले राक्षसवृत्ति के पुरुषों को (एवैः) = मरुतों - प्राणों के द्वारा (हत्वा) = नष्ट करके (पृथिव्याम्) = इस शरीररूप पृथिवी में (शर्वा) = दुष्टों का संहार करनेवाला प्रभु (निबर्हीत्) = बुराई का संहार व उद्बर्हण करनेवाला होता है । हमारे इन शरीरों को प्रभु पवित्र बनानेवाले होते हैं । वे हमारे हृदयों में उपक्षय व नाश की वृत्ति को नहीं पनपने देते । 

    २. वे प्रभु (शिवत्न्येभिः) = शुक्लवर्णता व शुद्धता के कारणभूत (सखिभिः) = मित्रभूत (मरुतों) = प्राणों के द्वारा (क्षेत्रं सनत्) = इस उत्तम शरीररूप क्षेत्र को प्राप्त कराते हैं । इस शरीर में हमारा निवास व हमारी गति उत्तम होती है । (सूर्यं सनत्) = वे प्रभु हमें ज्ञान के सूर्य को - प्रकाश को प्राप्त कराते हैं और (सुवज्रः) = उत्तम वज्र व क्रियाशीलतावाले प्रभु (अपः) = कर्मों को (सनत्) = प्राप्त कराते हैं । प्रभुकृपा से हमारा जीवन स्वस्थ [क्षेत्र] प्रकाशमय [सूर्य] व क्रियाशील [अपः] होता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से उपक्षय व वध की वृत्ति नष्ट होती है । हमारा शरीर स्वस्थ , प्रकाशमय व क्रियाशील बनता है । 
     

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    विषय

    उसके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( पुरुहूतः ) बहुतसी प्रजाओं से स्तुति और आदर को प्राप्त होकर राजा ( पृथिव्याम् ) पृथिवी पर ( दस्यून् ) प्रजा को नाश करने वाले दुष्ट पुरुषों को और ( शिम्यून् ) लुक छिप कर प्राणियों के प्राणों को शान्त कर देने वाले हत्यारे पुरुषों को ( एवैः ) आक्रमणों से और ( शर्वा ) शस्त्र, या बाण के प्रयोग से ( नि बर्हीत् ) अच्छी प्रकार नाश कर दे। और (श्वित्न्येभिः) तेजस्वी और श्वेत वर्ण के, उज्वल, चरित्रवान् ( सखिभिः ) मित्र वर्गों के साथ मिलकर ( क्षेत्रं सनत् ) भूमि के क्षेत्र को अच्छी प्रकार विभाग करे, बांट ले और (सूर्यं) वह सूर्य के समान तेजस्वी पद को (सनत्) प्राप्त करे और ( सुवज्रः ) उत्तम वीर्यवान् होकर (अपः) जलों के समान शान्तिप्रद, सुखद, आप्त पुरुषों तथा शान्तिमय प्रजाजनों को ( सनत्) स्वयं प्राप्त करे और मित्र राजाओं के बीच में विभाग करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सभापती सज्जनासह अधर्मयुक्त व्यवहार नष्ट करून धार्मिक व्यवहाराचा प्रचार करून विद्येच्या युक्तीने व्यवहाराचा अंगीकार करतो व प्रजेचे दुःख नष्ट करतो तो सभा इत्यादीचा अध्यक्ष सर्वांनी मानण्यायोग्य असतो, अन्य नव्हे. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Invoked and prayed by many, Indra, wielder of the defensive and protective thunderbolt, having destroyed the wicked and removed the aggressive, ought to root out the weeds, and, with the cooperation and brilliant actions of his friends and companions, acquire, enrich, distribute and manage the land, strengthen heat, light and health and energy, and manage the water resources.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should Indra do is taught further in the 18th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Indra (President of the Assembly or the Commander of the army) should be served by all who is the wielder of powerful weapons like the thunderbolt, who is invoked and respected by many, who is destroyer of all miseries, who with friends full of splendour and with noble knowledge and good actions slays wicked people and removes miseries of all good persons of quiet and calm nature and his servants, who protects in his kingdom on earth his residence, Prana or vital force and waters.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (शिम्यून् ) शान्तान् प्रारिणन: = Men of peaceful or calm nature. (शर्वा) सर्वदुःखहिंसकः = Destroyer of all miseries. (सनत्) यथावत्, निरन्तरम् = Continuously.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He alone should be regarded as the president of the Assembly, etc. who along with all good people, keeps away all un-righteous conduct, preaches righteous conduct and performs good deeds that are in accordance with true knowledge and thus alleviates the sufferings of the subjects; none else should be accepted as such.

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