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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स म॑न्यु॒मीः स॒मद॑नस्य क॒र्तास्माके॑भि॒र्नृभि॒: सूर्यं॑ सनत्। अ॒स्मिन्नह॒न्त्सत्प॑तिः पुरुहू॒तो म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । म॒न्यु॒ऽमीः । स॒ऽमद॑नस्य । क॒र्ता । अ॒स्माके॑भिः । नृऽभिः॑ । सूर्य॑म् । स॒न॒त् । अ॒स्मिन् । अह॑न् । सत्ऽप॑तिः । पु॒रु॒ऽहू॒तः । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मन्युमीः समदनस्य कर्तास्माकेभिर्नृभि: सूर्यं सनत्। अस्मिन्नहन्त्सत्पतिः पुरुहूतो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। मन्युऽमीः। सऽमदनस्य। कर्ता। अस्माकेभिः। नृऽभिः। सूर्यम्। सनत्। अस्मिन्। अहन्। सत्ऽपतिः। पुरुऽहूतः। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यो मन्युमीः समदनस्य कर्त्ता सत्पतिः पुरुहूतो मरुत्वानिन्द्रः परमैश्वर्य्यवान्सेनापतिरस्माकेभिर्नृभिः सह वर्त्तमानः सन् सूर्यमिव युद्धन्यायं सनत्संभजेत्सोऽस्मिन्नहन् नः सततमूती भवतु ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (सः) (मन्युमीः) यो मन्युं मीनाति हिनस्ति सः (समदनस्य) मदनं हर्षणं यस्मिन्नस्ति तेन सहितस्य (कर्त्ता) निष्पादकः (अस्माकेभिः) अस्मदीयैः शरीरात्मबलयुक्तै वीरैः (नृभिः) मनुष्यैः सहितः (सूर्य्यम्) सवितृप्रकाशमिव युद्धन्यायम् (सनत्) संभजेत्। लेट्प्रयोगोऽयम्। (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (अहन्) अहनि (सत्पतिः) सतां पुरुषाणां वा पालकः (पुरुहूतः) पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिः शूरवीरैर्वाहूतः स्पर्द्धितो वा (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यं प्राप्य समस्ताः पदार्था विभक्ताः प्रकाशिताः सन्त आनन्दकारका भवन्ति तथैव धार्मिकान् न्यायाधीशान् प्राप्य पुत्रपौत्रकलत्रभृत्यादिभिः सह वर्त्तमाना विद्याधर्मन्यायेषु प्रसिद्धाऽऽचरणा जना भूत्वा कल्याणकारका भवन्ति, यः सर्वदा क्रोधजित्सर्वथा नित्यं प्रसन्नताकारको भवति स एव सैन्यापत्याधिकारेऽभिषेक्तुं योग्यो भवति। यो भूतकालो शेषज्ञो वर्त्तमानकाले क्षिप्रकारी विचारशीलोऽस्ति स एव सर्वदा विजयी भवति नेतरः ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (मन्युमीः) क्रोध का मारने वा (समदनस्य) जिसमें आनन्द है उसका (कर्त्ता) करने और (सत्पतिः) सज्जन तथा उत्तम कामों को पालनेहारा (पुरुहूतः) वा बहुत विद्वान् और शूरवीरों ने जिसकी स्तुति और प्रशंसा की है (मरुत्वान्) जिसकी सेना में अच्छे-अच्छे वीरजन हैं (इन्द्रः) वह परमैश्वर्यवान् सेनापति (अस्माकेभिः) हमारे शरीर, आत्मा और बल के तुल्य बलों से युक्त वीर (नृभिः) मनुष्यों के साथ वर्त्तमान होता हुआ (सूर्य्यम्)) सूर्य के प्रकाशतुल्य युद्ध न्याय को (सनत्) अच्छे प्रकार सेवन करे (सः) वह (अस्मिन्) आज के दिन (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार के लिये निरन्तर (भवतु) हो ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य को प्राप्त होकर सब पदार्थ अलग-अलग प्रकाशित हुए आनन्द के करनेवाले होते हैं वैसे ही धार्मिक न्यायाधीशों को प्राप्त होकर पुत्र, पौत्र, स्त्रीजन तथा सेवकों के साथ वर्त्तमान विद्या, धर्म और न्याय में प्रसिद्ध आचरणवाले होकर मनुष्य अपने और दूसरों के कल्याण करनेवाले होते हैं। जो सब कभी क्रोध को अपने वश में करने और सब प्रकार से नित्य प्रसन्नता आनन्द करनेवाला होता है, वही सेनाधीश होने में नियत करने योग्य होता है। जो बीते हुए व्यवहार के बचे हुए को जाने, चलते हुए व्यवहार में शीघ्र कर्त्तव्य काम के विचार में तत्पर है, वही सर्वदा विजय को प्राप्त होता है, दूसरा नहीं ॥ ६ ॥

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    विषय

    ‘मन्युमीः’ प्रभु

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (मन्यु - मीः) = क्रोध का व अभिमन्यमान शत्रु , अर्थात् अभिमान का संहार करनेवाले हैं । प्रभु हमें क्रोध व अभिमान से ऊपर उठाते हैं । (समदनस्य कर्ता) = संग्राम के वे करनेवाले हैं [सह माद्यन्त्यस्मिन्निति समदनः = संग्रामः] । वीर सैनिक संग्राम में एकत्र होकर आनन्द का अनुभव करते हैं । भक्त लोग भी काम - क्रोधादि से संग्राम करते हुए प्रभु के साथ आनन्दित होते हैं । इस अध्यात्म - संग्राम को हमारे लिए प्रभु ही कर रहे होते हैं । हम अकेले इन शत्रुओं का पराभव नहीं कर सकते । 

    २. वे प्रभु (अस्माकेभिः नृभिः) = आस्तिक वृत्तिवाले , प्रभुभक्ति की वृत्तिवाले हम लोगों के साथ (सूर्यं सनत्) = प्रकाश को संभक्त करते हैं । प्रभुस्मरण से हृदय में प्रकाश प्राप्त होता है । 

    ३. इस प्रकार प्रकाश को प्राप्त करके ये प्रभु (अस्मिन् अहन्) = आज (सत्पतिः) = सज्जनों का रक्षण करते हैं । (पुरुहूतः) = [पुरु हूतं यस्य] इस प्रभु का पुकारना हमारा पालन व पूरण करनेवाला होता है । ये (मरुत्वान् इन्द्रः) = वायुओं व प्राणोंवाले परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारे (ऊती) = रक्षण के लिए (भवतु) = हों । प्रभु वायु के द्वारा जगत को जीवन देते हैं तो प्राणों के द्वारा शरीर व मन के दोषों के दहन की शक्ति प्राप्त कराके हमारा रक्षण करते हैं । 
     

    भावार्थ


    भावार्थ - प्रभु हमारे क्रोध व अभिमान को नष्ट करते हैं और प्रकाश प्राप्त कराते हैं । 
     

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    विषय

    उसके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    जो ( मन्युभीः ) क्रोध द्वारा शत्रुओं को मारने वाला अथवा मन्यु अर्थात् अभिमानयुक्त शत्रु को नाश करने वाला या अपने ही भीतरी क्रोध आदि का नाशक होकर (समदनस्य) संग्राम का (कर्त्ता) करने वाला है और जो ( अस्मिन् ) इस संग्राम के अवसर में ( अस्माकेभिः ) हमारे अपने ( नृभिः ) नायक और वीर पुरुषों के सहाय से ( अहन् ) शत्रुओं का नाश करता है वही ( सूर्यम् सनत् ) सूर्य के प्रकाश के समान न्याय व्यवहार का देने वाला होकर सूर्य के समान तेजस्वी पद को प्राप्त करता है। वही ( सत्पतिः ) सज्जनों का पालक ( पुरुहूतः ) नाना प्रजाओं द्वारा स्तुति किया हुआ, बहुत से शत्रुओं से ललकारा हुआ, वीर पुरुष ( मरुत्वान् इन्द्रः ) वीर सैनिक पुरुषों का स्वामी, ऐश्वर्यवान् राजा ( नः ऊती भवतु ) हमारी रक्षा के लिये हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्यप्रकाशामुळे सर्व पदार्थ पृथक पृथक दृश्यमान होतात व आनंददायी ठरतात तसेच धार्मिक न्यायाधीशांना प्राप्त करून पुत्र, पौत्र, स्त्रिया व सेवक यांच्यासह विद्या धर्म न्यायाने प्रसिद्ध आचरण करणारी माणसे आपले व दुसऱ्याचे कल्याण करणारी असतात. जो सर्व प्रकारे क्रोधाला आपल्या ताब्यात ठेवून सर्व प्रकारे सदैव प्रसन्नता व आनंद देणारा असतो, तोच सेनाधीश म्हणून नियुक्त करण्यायोग्य असतो. जो भूतकालीन अनुभवाने वर्तमानकाळातील व्यवहाराबाबत कर्तव्यदक्ष असतो, तोच नेहमी विजय प्राप्त करतो, अन्य नव्हे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let Indra, ruler of the world, passionate controller of anger and passion, creator of projects for freedom and joy, bring the light and bliss of heaven on earth. Protector and promoter of truth and the true, invoked and praised by many, may he, commander of the force of tempestuous Maruts, we pray, be our leader and guide and protect us on way to progress with the assistance and cooperation of our people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May Indra (Commander of the Army) who is the represser or conqueror of wrath, the doer of gladdening deeds, the protector of the good, invoked by many, be our protector on this day, he who is present with our men strong in body and soul. May he manifest the justice in war like the light of the sun.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मन्युमी:) यः मन्युं मानाति हिनस्ति सः = Conqueror of wrath. (समदनस्य) मदनं हर्षणं यस्मिन्नस्ति तेन सहितस्य | = Source of gladness to all.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As all objects become source of gladdess in the light of the sun, in the same way, good men who are renowned on account of Vidya (wisdom) Dharma (righteousness) and justice become givers of happiness, having attained righteous judges along with their children. grand children, wives and servants. It is he who is conqueror of wrath and always causer of gladness to good people that can become fit to be the commanders of the Army. He alone can get victory over his enemies, who knows everything important regarding the past, is prompt in doing good deeds at present and is thoughtful and none else.

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