ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 7
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तमू॒तयो॑ रणय॒ञ्छूर॑सातौ॒ तं क्षेम॑स्य क्षि॒तय॑: कृण्वत॒ त्राम्। स विश्व॑स्य क॒रुण॑स्येश॒ एको॑ म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊ॒तयः॑ । र॒ण॒य॒त् । शूर॑ऽसातौ । तम् । क्षेम॑स्य । क्षि॒तयः॑ । कृ॒ण्व॒त॒ । त्राम् । सः । विश्व॑स्य । क॒रुण॑स्य । ई॒शे॒ । एकः॑ । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमूतयो रणयञ्छूरसातौ तं क्षेमस्य क्षितय: कृण्वत त्राम्। स विश्वस्य करुणस्येश एको मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। ऊतयः। रणयत्। शूरऽसातौ। तम्। क्षेमस्य। क्षितयः। कृण्वत। त्राम्। सः। विश्वस्य। करुणस्य। ईशे। एकः। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
यमूतयो भजन्तु तं शूरसातौ क्षितयस्त्रां कृण्वत कुर्वन्तु। यः क्षेमस्य कर्त्ता तं त्रां कुर्वन्तो शूरसातौ रणयन्। य एको विश्वस्य करुणस्येशे स मरुत्वानिन्द्रः सेनादिरक्षको न ऊती भवतु ॥ ७ ॥
पदार्थः
(तम्) सेनाद्यधिपतिम् (ऊतयः) रक्षणादीनि (रणयन्) शब्दयन्तु स्तुवन्तु। अत्र लङ्यडभावः। (शूरसातौ) शूराणां सातिर्यस्मिन्संग्रामे तस्मिन् (तम्) (क्षेमस्य) रक्षणस्य (क्षितयः) मनुष्याः। क्षितय इति मनुष्यनाम०। निघं० २। ३। (कृण्वत) कुर्वन्तु। अत्र लङ्यडभावः। (त्राम्) रक्षकम् (सः) (विश्वस्य) अखिलम् (करुणस्य) कृपामयं कर्म (ईशे) ईष्टे। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेष्विति त लोपः। (एकः) असहायः (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्योऽसहायोऽप्यनेकान् योद्धॄन् विजयते स संग्रामेऽन्यत्र वा प्रोत्साहनीयः। यथा प्रोत्साहेन वीरेषु शौर्य्यं जायते न तथा खल्वन्येन प्रकारेण भवितुं शक्यम् ॥ ७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जिसको (ऊतयः) रक्षा आदि व्यवहार सेवन करें (तम्) उस सेना आदि के अधिपति को (शूरसातौ) जिसमें शूरों का सेवन होता है उस संग्राम में (क्षितयः) मनुष्य (त्राम्) अपनी रक्षा करनेवाला (कृण्वत) करें, जो (क्षेमस्य) अत्यन्त कुशलता का करनेवाला है (तम्) उसको अपनी पालना करनेहारा किये हुए उक्त संग्राम में (रणयन्) रटें अर्थात् बार-बार उसी की विनती करें जो (एकः) अकेला सभाध्यक्ष (विश्वस्य) समस्त (करुणस्य) करुणारूपी काम को करने में (ईशे) समर्थ है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी सेना में प्रशंसित वीरों का रखने वा (इन्द्रः) सेना आदि की रक्षा करनेहारा (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (भवतु) हो ॥ ७ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जो अकेला भी अनेक योद्धाओं को जीतता है, उसका उत्साह संग्राम और व्यवहारों में अच्छे प्रकार बढ़ावें। अच्छे उत्साह से वीरों में जैसी शूरता होती है, वैसी निश्चय है कि और प्रकार से नहीं होती ॥ ७ ॥
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे मनुष्यो ! (तमूतयः) उसी इन्द्रपरमात्मा की प्रार्थना तथा शरणागति से अपन को (ऊतयः) अनन्त रक्षण तथा बलादि गुण प्राप्त होंगे। वही (शूरसातौ) युद्ध में अपने को यथावत् (रणयन्) रमण और रणभूमि में शूरवीरों के गुण – परस्पर प्रीत्यादि प्राप्त करावेगा (तं क्षेमस्य क्षितयः) हे शूरवीर मनुष्यो ! उसी को क्षेम=कुशलता का (त्राम्) रक्षक (कृण्वत) करो, जिससे अपना पराजय कभी न हो, क्योंकि, (सः, विश्वस्य वरुणस्य) सो करुणामय, सब जगत् पर करुणा करनेवाला (एकः) एक ही (ईश:) ईश है, अन्य कोई नहीं। (मरुत्वान्) प्राणवायु, बल, सेनायुक्त वह परमात्मा (नः ऊती [ऊतये] भवतु) हम लोगों पर स्वकृपा से सम्यक् रक्षक हो, ईश्वर से रक्षित हम लोग कभी पराजय को प्राप्त न हों ॥ ४१ ॥ "
विषय
करुण कर्मों का ईश ‘प्रभु’
पदार्थ
१. (ऊतयः) = अपना रक्षण करने का प्रयत्न करनेवाले लोग (तम्) = उस प्रभु को (शूरसातौ) = शूरों से सम्भजनीय संग्राम में (रणयन्) = शब्दित करते हैं - पुकारते हैं । प्रभु ने ही तो संग्राम में विजय प्राप्त करानी है । (क्षितयः) =[क्षि निवासगत्योः] अपने निवास को उत्तम बनाने के लिए गतिशील व्यक्ति ही (तम्) = उस प्रभु को (क्षेमस्य त्राम्) = कल्याण का रक्षण करनेवाला (कृण्वत) = करते हैं । प्रभु वस्तुतः उन्हीं का रक्षण करते हैं जो अपने रक्षण के लिए यत्नशील होते हैं । आलसी मनुष्य प्रभु की कृपा का पात्र नहीं होता ।
२. (सः) = वे प्रभु (एकः) = अकेले ही (विश्वस्य) = सब (करुणस्य) = अभिमत फल - निष्पादनरूप करुणात्मक कर्मों के (ईश) = ईश हैं । प्रभु को इन कल्याणात्मक कर्मों के करने में किसी अन्य के साहाय्य की आवश्यकता नहीं होती । ये (मरुत्वान् इन्द्रः) = वायुओं व प्राणोंवाले प्रभु (नः ऊती भवतु) = हमारे रक्षण के लिए हों । प्रभु से दी हुई इस शुद्ध वायु के सेवन से तथा प्राणसाधना से हम अपने जीवन को सुरक्षित बनाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ - परिश्रमी पुरुष ही प्रभु की रक्षा का पात्र होता है ।
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
( ऊतयः ) रक्षा करने हारे वीर पुरुष, और ज्ञानवान् विद्वान् और तेजस्वी पुरुष तथा रक्षा और उत्तम ज्ञान, तेज आदि सद्गुण ( तम् ) उस पूर्वोक्त वीर पुरुष को ( शूरसातौ ) शूरवीरों के योग्य संग्राम में ( रणयन् ) हर्षित करते, उसकी स्तुति करते, उसके गुणों का प्रकाश करते और उसको उपदेश करते हैं । ( तम् ) ऐसे वीर पुरुष को ही ( क्षितयः ) पृथ्वी निवासी प्रजागण (क्षेमस्य) अपने रक्षण-कार्य करने योग्य धन और जीवन सर्वस्व का ( त्राम कृण्वत ) पालक नियत करते हैं । ( सः ) वह ( विश्वस्य करुणस्य ) सब प्रकार के अनुग्रह और निग्रह आदि कर्म करने में ( ईशे ) समर्थ है। वह (एकः) अकेला ही (मरुत्वान् इन्द्रः) वीरभटों का स्वामी होकर सेनापति ( नः उती भवतु ) हमारी रक्षा के लिये हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जो एकटाच अनेक योद्ध्यांना जिंकतो त्याचा युद्धात व व्यवहारात माणसांनी उत्साह चांगल्या प्रकारे वाढवावा. जसे प्रोत्साहनाने वीरांमध्ये शौर्य उत्पन्न होते, निश्चितपणे असे म्हणता येईल की इतर प्रकारे उत्पन्न होत नाही. ॥ ७ ॥
विषय
स्तुती
व्याखान
हे मनुष्यांनो ! (तमूतयः) त्याच इंन्द्र परमेश्वराची प्रार्थना करून शरणागती पत्करल्याने आपल्याला (ऊतयः) रक्षण, बल इत्यादी अनंत गुण प्राप्त होतील. (शूरसातौ) युद्धात आपल्याला यथावत् (रणयन्) रमण करता येईल, व रणभूमीत शूरवीरांची परस्पर प्रीती इत्यादी गुण प्राप्त होतील. (तं क्षेमस्य क्षितयः) हे शूरवीर मनुष्यांनो! त्यालाच [परमेश्वरालाच] सुरक्षिततेसाठी (त्राम्) रक्षक (कृण्वत) करा. त्यामुळे आपला पराजय कधीच होऊ नये. कारण (सः विश्वस्य) तो करुणाकर सगळ्या जगाची करुणा करणारा (एकः) एकटा आहे. दुसरा कुणी नाही, तो परमेश्वर (मरुत्वान्) प्राण, वायु, बल सेना इत्यादींनी युक्त असून आमच्यावर सम्यक कृपा करून आमचा रक्षक व्हावा, ईश्वराने रक्षण केल्यामुळे आमचा पराजय कधीच होऊ नये. ॥४१॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Him, the battles of defence inspire for victory of the brave. Him, the people elevate to the status of the protector of peace and prosperity. He, unique among all, rules the projects of love and cooperation among the people. May he, commander of the Maruts, be our leader and protector for peace and progress.
Purport
O Men! By praying to and taking shelter under menter ur Indra the Supreme God we shall get infinite protection and immense power. He will bestow power on us to face the foe in the battle field. He will also endow us with the qualities of heroic man such as mutual love and amity. O the heroic men ! Make Him your protector for your welfare happiness and prosperity, so that you may never be defeated. He is the embodiment of compassion. He alone showers His compassion-mercy over the whole universe, none else. May that Supreme Soul, the Master of vital airs, physical power and possessor of thunderbolt be our protector. Protected by Him we should never be defeated be ever victorious.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May that Indra (Commander of the Army) be our protector who is glorified by all, on account of his protective powers, whom people make protector in battles, who is bringer of happiness and doer of good to all and who is the Master of all merciful acts.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(क्षितयः) मनुष्या: । क्षितय इति मनुष्यनाम (निघ० २.३ ) (रणयन्तु ) शब्दयन्तु स्तुवन्तु | अत्र लङयडभाव: = May glorify. रण-शब्दे (शूरसातौ) शूराणां सातिर्यस्मिन् संग्रामे तस्मिन् = In the battle field.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A man who conquers many warriors even when single, should be encouraged in battles and everywhere else. None can get as much bravery by other means as from proper encouragement.
Translator's Notes
There is also a spiritual interpretation of the Mantra as given by Rishi Dayananda in the Aryadhivinaya, taking Indra for God. The Almighty God is glorified by all. He is the One that has the power to have Compassion and disburse His favours on the whole universe. There is none else like Him. May He, the Master of all humanity of the hosts of creatures and vital forces, save us from everything untoward so that we may not be vanquished by our foes.
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे मनुष्य हो ! तमूतयः = उसै इन्द्र परमात्माको प्रार्थना र शरणागति ले हामीलाई ऊतयः = अनन्त रक्षण तथा बल आदि गुण प्राप्त हुने छन् । उही शूरसातौं = युद्ध मा निज हरुलाई यथावत् रणयन् = रमण तथा रणभूमि मा शूरवीर हरु को गुण- परस्पर प्रीति आदि प्राप्त गराउने छ, तं क्षेमस्य क्षितयः = हेशूर वीर मानिस हो ! उसै लाई क्षेम कुशलता को त्राम् = रक्षक कृण्वत = गर, जसले आफ्नो पराजय कहिल्यै न होओस्, किन की सः विश्वस्य वरुणस्य = त्यो करुणामय सम्पूर्ण जगत् माथि करुणा गर्ने एकः = एक मात्र ईश:= ईश हो अर्को कुनै छैन । मरुत्वान् = प्राणवायु, बल, र सेनायुक्त त्यो परमात्मा नः ऊती [ऊतये] भवतु = हामी माथि स्व कृपाले राम्रो संग रक्षाकारी होस्, ईश्वर बाट रक्षित हामीहरु कहिल्यै पनि पराजित नहोऔं ॥४१॥
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