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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 102/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तं स्मा॒ रथं॑ मघव॒न्प्राव॑ सा॒तये॒ जैत्रं॒ यं ते॑ अनु॒मदा॑म संग॒मे। आ॒जा न॑ इन्द्र॒ मन॑सा पुरुष्टुत त्वा॒यद्भ्यो॑ मघव॒ञ्छर्म॑ यच्छ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । स्म॒ । रथ॑म् । म॒घ॒ऽव॒न् । प्र । अव॑ । सा॒तये॑ । जैत्र॑म् । यम् । ते॒ । अ॒नु॒ऽमदा॑म । स॒म्ऽग॒मे । आ॒जा । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । मन॑सा । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । त्वा॒यत्ऽभ्यः॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं स्मा रथं मघवन्प्राव सातये जैत्रं यं ते अनुमदाम संगमे। आजा न इन्द्र मनसा पुरुष्टुत त्वायद्भ्यो मघवञ्छर्म यच्छ नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। स्म। रथम्। मघऽवन्। प्र। अव। सातये। जैत्रम्। यम्। ते। अनुऽमदाम। सम्ऽगमे। आजा। नः। इन्द्र। मनसा। पुरुऽस्तुत। त्वायत्ऽभ्यः। मघऽवन्। शर्म। यच्छ। नः ॥ १.१०२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 102; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सेनाधिपतिः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मघवन्निन्द्र सेनाधिपते त्वं नोऽस्माकं सातये तं जैत्रं स्म रथं योजयित्वाऽऽजा सङ्गमे प्राव तं कमित्यपेक्षायामाह यं ते तव रथं वयमनुमदाम। हे पुरुष्टुत मघवन् त्वं मनसा त्वायद्भ्यो नोऽस्मभ्यं शर्म यच्छ ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (तम्) (स्म) आश्चर्यगुणप्रकाशे। निपातस्य चेति दीर्घः। (रथम्) विमानादियानसमूहम् (मघवन्) प्रशस्तपूज्यधनयुक्त (प्र, अव) प्रापय (सातये) बहुधनप्राप्तये (जैत्रम्) जयन्ति येन तम्। अत्र जि धातोः सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्निति ष्ट्रन् प्रत्ययो बाहुलकाद्वृद्धिश्च। (यम्) (ते) तव (अनुमदाम) अनुहृष्येम। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप्। (सङ्गमे) संग्रामे। सङ्गम इति संग्रामनाम०। निघं० २। १७। (आजा) अजन्ति सङ्गच्छन्ते वीराः शत्रुभिर्यस्मिन् (नः) अस्माकम् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (मनसा) विज्ञानेन (पुरुष्टुत) बहुभिः शूरैः प्रशंसित (त्वायद्भ्यः) आत्मनस्त्वामिच्छद्भ्यः (मघवन्) प्रशंसितधन (शर्म) सुखम् (यच्छ) देहि (नः) अस्मभ्यम् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    यदा शूरवीरैर्भृत्यैः सेनाधिपतिना च संग्रामं कर्त्तुं गम्यते तदाऽन्योऽन्यमनुमोद्य संरक्ष्य शत्रुभिः संयोध्य तेषां पराजयं कृत्वा स्वकीयान् हर्षयित्वा शत्रूनपि संतोष्य सदा वर्त्तितव्यम् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर सेना का अधिपति क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मघवन्) प्रशंसित और मान करने योग्य धनयुक्त (इन्द्र) परमैश्वर्य्य के देनेवाले सेना के अधिपति ! आप (नः) हम लोगों के (सातये) बहुत से धन की प्राप्ति होने के लिये (जैत्रम्) जिससे संग्रामों में जीतें (तम्) उस (स्म) अद्भुत-अद्भुत गुणों को प्रकाशित करनेवाले (रथम्) विमान आदि रथसमूह को जुता के (आजा) जहाँ शत्रुओं से वीर जा-जा मिलें, उस (सङ्गमे) संग्राम में (प्र, अव) पहुँचाओ अर्थात् अपने रथ को वहाँ लेजाओ, कौन रथ को ? कि (यम्) जिस (ते) आपके रथ को हम लोग (अनु, मदाम) पीछे से सराहें। हे (पुरुष्टुत) बहुत शूरवीर जनों से प्रशंसा को प्राप्त (मघवन्) प्रशंसित धनयुक्त ! आप (मनसा) विशेष ज्ञान से (त्वायद्भ्यः) अपने को आपकी चाहना करते हुए (नः) हम लोगों के लिये अद्भुत (शर्म) सुख को (यच्छ) देओ ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जब शूरवीर सेवकों के साथ सेनापति को संग्राम करने को जाना होता है, तब परस्पर अर्थात् एक-दूसरे का उत्साह बढ़ाके अच्छे प्रकार रक्षा, शत्रुओं के साथ अच्छा युद्ध, उनकी हार और जनों को आनन्द देकर शत्रुओं को भी किसी प्रकार सन्तोष देकर सदा अपना वर्त्ताव रखना चाहिये ॥ ३ ॥

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    विषय

    जैत्र - रथ

    पदार्थ

    १. हे (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सातये) = जीवन - यात्रा की पूर्ति के लिए आवश्यक धनलाभ के लिए (तं रथम्) = उस शरीररूप रथ को (प्राव स्म) = [प्रेरय , वर्तय - सा०] प्रेरित कीजिए , हमें प्राप्त कराइए , (यं ते जैत्रम्) = जिस आपके विजयशील रथ को (संगमे) = शत्रुओं के साथ मुठभेड़ के अवसर पर (आजा) = युद्ध में (अनुमदाम) = प्रशंसित करते हैं । हमारा यह शरीररूप रथ दृढ़ हो । यह रोगरूप शत्रुओं से पराजित होनेवाला न हो - ‘जैत्र’ हो । काम - क्रोधादि शत्रुओं से संग्राम होने पर यह पराजित न हो जाए । 

    २. (नः) = हमारे (मनसा) = मन से (पुरुष्टुत) = खुब स्तुति किये गये इन्द्र परमैश्वर्यशाली प्रभो  ! (मघवन्) = यज्ञरूप प्रभो ! (त्वायद्भ्यः) = आपकी कामना करनेवाले (नः) = हमारा (शर्म यच्छ) = कल्याण कीजिए । जब एक मनुष्य सर्वभाव से - हृदय से प्रभु की उपासना करता है तब प्रभु उसका कल्याण करते हैं । जो भी व्यक्ति प्रभु की कामना करते हैं , प्रभु उन्हें सुखी करते ही हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें विजयशील शरीर - रथ प्राप्त कराएँ और मन से प्रभु - स्मरण करनेवालों का कल्याण करें । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा और सेना पति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! ( ते ) तेरे ( यं ) जिस ( जैत्रं ) समस्त दुःखों पर विजय करने वाले ( रथं ) रसस्वरूप, सबको अपने में रमण करने वाले स्वरूप को ( संगमे ) अच्छी प्रकार प्राप्त कर लेने पर योगदशा में हे (पुरुस्तुत) बहुतसी प्रजाओं से स्तुति करने योग्य ! तू ( आजा ) दुःखों को दूर करने वाले, तुझे प्राप्त करने वाले योगकाल में हे ( इन्द्र ) आत्मन, परमात्मन् ! हम ( अनुमदाम ) अनुक्षण, निरन्तर आनन्द रस का लाभ करते हैं । तू ( तं रथं ) उसी रसस्वरूप को (सातये) हमें सदा आनन्द लाभ कराने के लिये ( प्र अव ) प्रकट कर । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( मघवन् ) परम पूज्य परमेश्वर ! ( मनसा त्वायद्भ्यः ) मनसे तुझे चाहने वाले ( नः ) हमें तू ( शर्म ) सुख ( यच्छ ) प्रदान कर । (२) राजा तथा सेनापति के पक्ष में—( यं ते जैत्रं रथं अनुमदेम ) जिस विजय शील रथ को देख कर हम प्रसन्न होते हैं, हे ( मघवन् ) राजन् ! तू ( तं रथं सातये, आजा संगमे प्र अव ) उस रथ को ऐश्वर्य विजय के लाभ के लिये आगे बढ़ा । हे राजन् ! ( मनसा त्वायद्भ्यः शर्म यच्छ ) तू मन से तुझे चाहने वाले हम लोगों को सुख शरण प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ जगती । ३, ५—८ । निचृज्जगती २, ४, ९ स्वराट् त्रिष्टुप् । १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा शूरवीर सेवकांसह सेनापतीला युद्ध करावयास जावयाचे असते तेव्हा परस्पर अर्थात एक दुसऱ्याचा उत्साह वाढवून चांगल्या प्रकारे रक्षण, शत्रूंबरोबर युद्ध, त्यांचा पराभव करून आपल्या लोकांना आनंद द्यावा, शत्रूंनाही संतुष्ट करता येईल अशा प्रकारे आपले वर्तन ठेवावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Maghavan, lord of power, wealth and victory, reveal and bring up that wondrous and victorious chariot of yours for our victory and success in battle which we celebrate in the contests of heroes. Invoked, praised and worshipped with our mind and soul for the battles of life, Indra, give us, who are your admirers, our part of wealth and comfort.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ( Commander of the army ) possessed of admirable and adorable wealth, giver of prosperity, yoke thy Car in the form of air craft etc. which is victorious and which we rejoice to behold in battle, to acquire much wealth. O Indra, much praised by us grant happiness to us who are sincerely devoted to thee or earnestly desire thee.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जैत्रम्) जयन्ति येन तम् । अत्र जिधातोः सर्वधातुभ्यःष्ट्रन् इतिष्ट्रन् प्रत्ययो बाहुलकाद् वृद्धिश्च | = Victorious. (संगमे) संग्रामे | संगम इति संग्राम नाम (निघं० २.१७) = In the battle. (आजा) अजन्ति संगच्छन्ते वीरा: शत्रुभियंस्मिन् तस्मिन् = In the battle where heroes meet with their foes.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When brave soldiers go to battle along with their commanders, they should please one another, fight with their foes and defeat them. They should gladden their own men and should even please or console their enemies.

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