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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 102/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    नाना॒ हि त्वा॒ हव॑माना॒ जना॑ इ॒मे धना॑नां धर्त॒रव॑सा विप॒न्यव॑:। अ॒स्माकं॑ स्मा॒ रथ॒मा ति॑ष्ठ सा॒तये॒ जैत्रं॒ ही॑न्द्र॒ निभृ॑तं॒ मन॒स्तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नाना॑ । हि । त्वा॒ । हव॑मानाः । जनाः॑ । इ॒मे । धना॑नाम् । ध॒र्तः॒ । अव॑सा । वि॒प॒न्यवः॑ । अ॒स्माक॑म् । स्म॒ । रथ॑म् । आ । ति॒ष्ठ॒ । सा॒तये॑ । जैत्र॑म् । हि । इ॒न्द्र॒ । निऽभृ॑तम् । मनः॑ । तव॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाना हि त्वा हवमाना जना इमे धनानां धर्तरवसा विपन्यव:। अस्माकं स्मा रथमा तिष्ठ सातये जैत्रं हीन्द्र निभृतं मनस्तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नाना। हि। त्वा। हवमानाः। जनाः। इमे। धनानाम्। धर्तः। अवसा। विपन्यवः। अस्माकम्। स्म। रथम्। आ। तिष्ठ। सातये। जैत्रम्। हि। इन्द्र। निऽभृतम्। मनः। तव ॥ १.१०२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 102; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तैः परस्परं तत्र कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र त्वं धनानां सातये स्म यत्र तव मनो निभृतं तमस्माकं जैत्रं रथं ह्यातिष्ठ। हे धर्त्तस्तवाज्ञायां स्थिता अवसा सह वर्त्तमाना नाना हवमाना विपन्यवो जना इमे वयं त्वानुकूलं हि वर्त्तेमहि ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (नाना) अनेकप्रकाराः (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (हवमानाः) स्पर्द्धमानाः (जनाः) शौर्य्यधनुर्वेदकुशला अतिरथा मनुष्याः (इमे) प्रत्यक्षतया सुपरीक्षिताः (धनानाम्) राज्यविभूतीनाम् (धर्त्तः) धारक (अवसा) रक्षणादिना सह वर्त्तमानाः (विपन्यवः) विविधव्यवहारकुशला मेधाविनः (अस्माकम्) (स्म) हर्षे। पूर्ववदत्र दीर्घः। (रथम्) विजयहेतुं विमानादियानम् (आ) (तिष्ठ) (सातये) संविभागाय (जैत्रम्) दृढं वैयाघ्रं विजयनिमित्तम् (हि) प्रसिद्धम् (इन्द्र) यथावद्वीराणां रक्षक (निभृतम्) नितरां धृतम् (मनः) मननशीलान्तःकरणवृत्तिः (तव) ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    यदा मनुष्या युद्धादिव्यवहारे प्रवर्त्तेरंस्तदा विरोधेर्ष्याभयालस्यं विहाय परस्पररक्षायां तत्परा भूत्वा शत्रून् विजित्य विजितधानानां विभागान् कृत्वा सेनापत्यादयो यथायोग्यं योद्धृभ्यः सत्कारायैतानि दद्युर्यतोऽग्रेऽप्युत्साहो वर्धेत। सर्वथाऽऽदानमप्रियकरं दानञ्च प्रियकारकमिति बुद्ध्वैतत्सदाऽनुतिष्ठेयुः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उनको परस्पर युद्ध में कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) यथायोग्य वीरों के रखनेवाले ! तुम (धनानाम्) राज्य की विभूतियों के (सातये) अलग-अलग बाँटने के लिये (स्म) आनन्द ही के साथ जिसमें (तव) तुम्हारी (मनः) विचार करनेवाली चित्त की वृत्ति (निभृतम्) निरन्तर धरी हो, उस (अस्माकम्) हमारे (जैत्रम्) जो बड़ा दृढ़ जिससे शत्रु जीते जाएँ (रथम्) ऐसे विजय करानेवाले विमानादि यान (हि) ही को (आतिष्ठ) अच्छे प्रकार स्वीकार कर स्थित हो। हे (धर्त्तः) धारण करनेवाले ! तुम्हारी आज्ञा में अपना वर्त्ताव रखते हुए (अवसा) रक्षा आदि आपके गुणों के साथ वर्त्तमान (नाना) अनेक प्रकार (हवमानाः) चाहे हुए (विपन्यवः) विविध व्यवहारों में चतुर बुद्धिमान् (जनाः) जन (इमे) ये प्रत्यक्षता से परीक्षा किये हम लोग (त्वाम्) तुम्हारे अनुकूल (हि) ही वर्त्ताव रक्खें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य युद्ध आदि व्यवहारों में प्रवृत्त होवें तब विरोध, ईर्ष्या, डर और आलस्य को छोड़ एक-दूसरे की रक्षा में तत्पर हो शत्रुओं को जीत और जीते हुए धनों को बाँटकर सेनापति आदि लड़नेवालों की योग्यता के अनुकूल उनके सत्कार के लिये देवें कि जिससे लड़ने का उत्साह आगे को बढ़े। सब प्रकार से ले लेना प्रीति करनेवाला नहीं और देना प्रसन्नता करनेवाला होता है, यह विचारकर सदा उक्त व्यवहार को वर्त्तें ॥ ५ ॥

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    विषय

    ‘जैत्र - निभृत’ मन

    पदार्थ

    १. हे (धनानां धर्तः) = विविध धनों को धारण करनेवाले प्रभो ! (इमे) = ये (नाना जनाः) = विविध वृत्तियों के लोग (विपन्यवः) = विशेषरूप से आपका स्तवन करनेवाले बनकर (अवसा) = रक्षण के हेतु से (त्वा हि हवमानाः) = आपको ही पुकारनेवाले हैं । अन्ततः सब प्रभु का स्मरण करते हैं । अन्तिम शरण प्रभु ही हैं - “सा काष्ठा सा परा गतिः” । संसार के सब आधार अन्त में धोखा दे जाते हैं , प्रभुरूप आधार ही अविचल है । 

    २. हे प्रभो ! आप (अस्माकम् रथम् आतिष्ठ स्म) = हमारे इस शरीररूप रथ पर स्थित होओ । आपके इस रथ के अधिष्ठाता बनने पर ही हम (सातये) = विजयी होते हैं । आपके साथ हम जीतते हैं , आपके बिना पराजय - ही - पराजय होती है । 

    ३. हे (इन्द्र) = सब असुरों का संहार करनेवाले प्रभो ! (मनः) = जब हमारा यह मन (तव) = आपका होता है , जब यह आपका स्मरण करनेवाला होता है तभी यह (हि) = निश्चय से (जैत्रम्) = जयशील होता है और (निभृतम्) = व्याकुलतारहित होता है , इसमें किसी प्रकार का क्षोभ नहीं होता । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - अन्ततः सब प्रभु का स्मरण करते हैं । प्रभु - प्रवण मन विजयशील व व्याकुलतारहित होता है । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा और सेना पति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( धनानां धर्त्तः ) समस्त ऐश्वर्यो के धारण करने हारे वीर नायक ! ( हि ) निश्चय से ( त्वा ) तुझ से स्पर्धा करने वाले, तेरे सदृश बल और ज्ञान वाले ( इमे नाना ) ये नाना जन भी ( विपन्यवः ) विविध व्यवहारों में कुशल एवं नाना विद्याओं के प्रवक्ता जन ( अपसा ) ज्ञान और रक्षण सामर्थ्य सहित विद्यमान हैं। इन सब में से तू ही ( सातये ) ऐश्वर्य के विभाग और प्राप्ति के लिये ( अस्माकम् ) हमारे ( जैत्रं ) विजयकारी, मुख्य ( रथम् ) रथ अर्थात् महारथी पद पर ( आतिष्ठ ) विराजमान हो । ( हि ) क्योंकि (तव मनः) तेरा चित्त और ज्ञान ( निभृतं ) खूब अच्छी प्रकार सुरक्षित, स्थिर और अच्छी प्रकार नियमित है। इति चतुर्दशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ जगती । ३, ५—८ । निचृज्जगती २, ४, ९ स्वराट् त्रिष्टुप् । १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा माणसे युद्ध इत्यादी व्यवहारांत प्रवृत्त होतात तेव्हा ईर्ष्या, विरोध, भय, आळस सोडून एकमेकांचे रक्षण करण्यास तत्पर व्हावे. शत्रूंना जिंकावे व जिंकलेल्या धनाचे वाटप करून सेनापती इत्यादी लढणाऱ्यांच्या योग्यतेनुसार त्यांच्या सत्कारासाठी ते द्यावे. ज्यामुळे त्यांचा पुढे लढण्याचा उत्साह वाढेल. सर्व प्रकारे घेणे प्रीतिकारक नसते तर देण्यामुळे प्रसन्नता निर्माण होते. हा विचार सदैव उक्त व्यवहारात आणावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord controller and treasurer of the wealth of the nation, many people are there, your admirers and worshippers, who invoke you and call upon you with means of security and protection. Be seated in our chariot which is unbreakable and victorious and in which your mind would be cool, collected and at peace, and come to assign our share of rights and duties and to dispense our part of endeavour and prize.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they (soldiers) behave with one another is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Commander of the army and protector of the brave soldiers). Many are the men skilled in archery and the use of various arms. O upholder of wealth, we who are of good conduct and full of intelligence, follow thee and obey thy commands. Thy mind is composed and resolved. on victory. Mount on thy victorious car in the form of aero plane etc. and divide wealth that is obtained from victory among persons justly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जनाः) शौर्यधनुर्वेदकुशला अतिरथा मनुष्याः | = Brave men experts in archery and the use of other arms. (विपन्यवः) विविधव्यवहारर्कुशला मेधाविनः | = Experts in various dealings of good conduct and intelligence. (सातये) संविभागाय = for dividing.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When men are engaged in battles, they should give up all animosity, fear and indolence among themselves, should protect one another, and should be victorious over their foes The commanders of the armies should divide justly the wealth obtained from victory and should honor brave soldiers in order to give them encouragement in future also. They should bear in mind that taking or acceptance of gifts or presents is un-pleasant and giving is source of happiness and joy. Therefore they should behave in accordance with the above instruction.

    Translator's Notes

    TRANSLATOR'S NOTES पन व्यवहारे स्तुतौ च विपन्यव इति मेधाविनाम || (निघ० १.१५) सातये षण-संभक्तौ

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