ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 102/ मन्त्र 9
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वां दे॒वेषु॑ प्रथ॒मं ह॑वामहे॒ त्वं ब॑भूथ॒ पृत॑नासु सास॒हिः। सेमं न॑: का॒रुमु॑पम॒न्युमु॒द्भिद॒मिन्द्र॑: कृणोतु प्रस॒वे रथं॑ पु॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । दे॒वेषु॑ । प्र॒थ॒मम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । त्वम् । ब॒भू॒थ॒ । पृत॑नासु । स॒स॒हिः । सः । इ॒मम् । नः॒ । का॒रुम् । उ॒प॒ऽम॒न्युम् । उ॒त्ऽभिद॑म् । इन्द्रः॑ । कृ॒णो॒तु॒ । प्र॒ऽस॒वे । रथ॑म् । पु॒रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां देवेषु प्रथमं हवामहे त्वं बभूथ पृतनासु सासहिः। सेमं न: कारुमुपमन्युमुद्भिदमिन्द्र: कृणोतु प्रसवे रथं पुरः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। देवेषु। प्रथमम्। हवामहे। त्वम्। बभूथ। पृतनासु। ससहिः। सः। इमम्। नः। कारुम्। उपऽमन्युम्। उत्ऽभिदम्। इन्द्रः। कृणोतु। प्रऽसवे। रथम्। पुरः ॥ १.१०२.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 102; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सेनाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सेनापते यतस्त्वं पृतनासु सासहिर्बभूथ तस्माद् देवेषु प्रथमं त्वां वयं हवामहे। य इन्द्रो भवान् प्रसव उद्भिदं रथं पुरः करोति स नोऽस्मभ्यमिममुपमन्युं कारुं कृणोतु ॥ ९ ॥
पदार्थः
(त्वाम्) सर्वसेनाधिपतिम् (देवेषु) विद्वत्सु (प्रथमम्) आदिमम् (हवामहे) स्वीकुर्महे (त्वम्) (बभूथ) भवसि। बभूथाततन्थ० इतीडभावो निपातनात्। (पृतनासु) स्वेषां शत्रूणां वा सेनासु (सासहिः) अतिशयेन षोढा (सः) सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणमिति सुलोपः। (इमम्) प्रत्यक्षम् (नः) अस्मभ्यम् (कारुम्) शिल्पकार्यकर्त्तारम् (उपमन्युम्) उपसमीपे मन्तुं योग्यम् (उद्भिदम्) पृथिवीं भित्वा जातेन काष्ठेन निर्मितम् (इन्द्रः) अखिलैश्वर्यकारकः (कृणोतु) (प्रसवे) प्रकृष्टतया सुवन्ति प्रेरयन्ति वीरान् यस्मिन् राज्ये तस्मिन् (रथम्) विमानादियानम् (पुरः) पुरःसरम् ॥ ९ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्य उत्तमो विद्वान् स्वसेनापालने शत्रुबलविदारणे चतुरः शिल्पवित् प्रियो युद्धे पुरःसरणादतियोद्धा वर्त्तते स एव सेनापतिः कर्त्तव्यः ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सेना का अध्यक्ष कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे सेनापते ! जिस कारण (त्वम्) आप (पृतनासु) अपनी वा शत्रुओं की सेनाओं में (सासहिः) अतीव सहनशील (बभूथ) होते हैं इससे (देवेषु) विद्वानों में (प्रथमम्) पहिले (त्वाम्) समग्र सेना के अधिपति तुमको (हवामहे) हम लोग स्वीकार करते हैं, जो (इन्द्रः) समस्त ऐश्वर्य के प्रकट करनेहारे आप (प्रसवे) जिसमें वीरजन चिताये जाते हैं उस राज्य में (उद्भिम्) पृथिवी का विदारण करके उत्पन्न होनेवाले काष्ठ विशेष से बनाये हुए (रथम्) विमान आदि रथ को (पुरः) आगे करते हैं (सः) वह आप (नः) हम लोगों के लिये (इमम) इस (उपमन्युम्) समीप में मानने योग्य (कारुम्) क्रिया कौशल काम के करनेवाले जन को (कृणोतु) प्रसिद्ध करें ॥ ९ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जो उत्तम विद्वान्, अपनी सेना को पालन और शत्रुओं के बल को विदारने में चतुर, शिल्पकार्य्यों को जाननेवाला, प्रेमी, युद्ध में आगे होने से अत्यन्त युद्ध करता है, उसी को सेना का अधीश करें ॥ ९ ॥
विषय
‘कारु , उपमन्यु व उद्भिद्’ रथ
पदार्थ
१. तेतीस देव हैं , चौतीसवाँ उनका अधिष्ठाता महादेव है । हे प्रभो ! (त्वाम्) = आपको (देवेषु प्रथमम्) = सब देवों में सर्वप्रथम को (हवामहे) = हम पुकारते हैं , आपकी आराधना करते हैं । (पृतनासु) = संग्रामों में (त्वम्) = आप ही (सासहिः) = सब शत्रुओं का पराभव करनेवाले (बभूथ) = हैं । (सः) = वे आप (नः) = हमारे (इमम्) = इस (रथम्) = शरीररूप रथ को (कारुम्) = खूब क्रियाशील , (उपमन्युम्) = उपासना के द्वारा ज्ञानवाला [मन् - अवबोधे] (उद्भिदम्) = मार्ग में आनेवाले विघ्नों का विदारण करनेवाला (कृणोतु) = करो । (प्रसवे) = ऐश्वर्य के निमित्त [Acquisition] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यवाले आप हमारे इस शरीररूप रथ को (पुरः कृणोतु) = आगे गतिवाला कीजिए । आपकी कृपा से हम इस रथ के द्वारा आगे और आगे बढ़ें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही हमें संग्रामों में जितानेवाले हैं । हमारा यह शरीररूप रथ क्रियाशील , प्रकाशवाला व विघ्नविदारक होकर आगे बढ़नेवाला हो ।
विषय
पक्षान्तर में राजा और सेना पति का वर्णन।
भावार्थ
हे राजन् ! हम लोग ( देवेषु ) विजयशील, तेजस्वी पुरुषों और विद्वानों में ( प्रथमं ) सर्वश्रेष्ठ ( त्वां ) तुझको स्वीकार करें । ( त्वं ) तू ही ( पृतनासु ) संग्रामों में ( सासहिः ) सदा शत्रुओं का पराजय करने हारा ( बभूथ ) हो । ( सः ) वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ही ( नः ) हममें से ( उपमन्युम् ) प्रत्येक पदार्थ को अति समीप होकर उसका ज्ञान करनेवाले रहस्यतत्वज्ञ ( इमं ) इस ( कारुम् ) शिल्पादि के बनाने वाले पुरुष को ( प्रसवे ) उत्तम २ पदार्थों के उत्पादन कार्य में ( पुरः ) सब के आगे प्रमुख ( कृणोतु ) करे । और ( उद्भिदम् रथम् ) जिस प्रकार शिल्पी पृथिवी फोड़ कर निकले हुए वृक्ष के काष्ठ को रथ बना देता है उसी प्रकार ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष, राजा या सेनापति ( उद्भिदम् ) सब से उत्तम या ऊर्ध्वचारी होकर शत्रु सेना को फोड़ने में समर्थ ( रथम् ) रथ नाम सेनाङ्ग को (प्रसवे) उत्तम ऐश्वर्य के प्राप्त करने और उत्तम रीति से सेना के प्रशासन कार्य में ( पुरः ) सबके आगे प्रमुख स्थान पर ( कृणोतु ) नियत करे अर्थात् शत्रु भेदन में कुशल महारथी को सर्वाग्रणी बनावे । ( २ ) परमेश्वर के पक्ष में—हम समस्त दिव्यगुण वाले प्रकाशक, लोकों और विद्वानों में प्रथम, मुख्य तुझे स्तुति करते हैं । तू ( पृतनासु ) सब मनुष्यों का वशीकर्ता है । वह तू परमेश्वर इस ( उपमन्युम् कारुम् ) तेरे नित्य मनन करनेवाले, स्तुतिकर्त्ता, कर्मकर्त्ता जीव को और ( रथं ) रमण साधन देह को ( उद्भिदम् ) वनस्पति के समान ( प्रसवे ) उत्पन्न होने के लिये ( कृणोतु ) उत्पन्न करता है । अथवा ( रथम् ) रमण करनेवाले ( उद्भिदम् ) उत्तमांग या मूर्धास्थल या सूर्यबिम्ब को भेदन करनेवाले आत्मा को ( पुरः ) सब से प्रथम ( प्रसवे ) अपने उत्तम ऐश्वर्य और आज्ञा में ले लेता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ जगती । ३, ५—८ । निचृज्जगती २, ४, ९ स्वराट् त्रिष्टुप् । १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी, जो उत्तम विद्वान, आपल्या सेनेचे पालन व शत्रूच्या बलाचे विदारण करण्यात चतुर, शिल्पकार्यांना जाणणारा, प्रेमळ, युद्धात समोर राहून प्रचंड युद्ध करतो, त्यालाच सेनापती करावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord ruler of the universe, first and highest among devas, divinities of nature and humanity, greater than your own attributes, we invoke you, pray to you, and worship you. In the battles of the elements and conflicts of humanity, you are the unmoved victor. Lord Indra as you are, in our yajna of life for progress and prosperity, we pray, advance our chariot made of earthly materials to the front and raise our technologist maker and respected worker close at hand among us to high status.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be the Commander of the army is taught in ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ( commander of the army ) as thou art the mightiest in our own army as well as that of our adversaries, therefore we regard and invoke thee as the first and foremost among enlightened persons. Thou hast been the victor in all battles. May Indra (Commander of the army) put foremost in the battle the chariot in the form of the aero plane etc. and may he always encourage educated artists for the benefit of the people of the State.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कारुम्) शिल्पकार्यकर्तारम् = Artist, well-versed in various arts and industries. (प्रसवे) प्रकृष्टतया सुवन्ति प्रेरयन्ति वीरान् यस्मिन् राज्ये तस्मिन् = Where brave persons are respected.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should appoint him as the Commander of their army who is highly learned, expert in maintaining his own army and destroying the strength of his enemies, who is knower of various arts, and is a mighty hero, loved by the people owing to his extra-ordinary qualities.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal