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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 123 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान् देवता - उषाः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सु॒सं॒का॒शा मा॒तृमृ॑ष्टेव॒ योषा॒विस्त॒न्वं॑ कृणुषे दृ॒शे कम्। भ॒द्रा त्वमु॑षो वित॒रं व्यु॑च्छ॒ न तत्ते॑ अ॒न्या उ॒षसो॑ नशन्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽस॒ङ्का॒शा । मा॒तृमृ॑ष्टाऽइव । योषा॑ । आ॒विः । त॒न्व॑म् । कृ॒णु॒षे॒ । दृ॒शे । कम् । भ॒द्रा । त्वम् । उ॒षः॒ । वि॒ऽत॒रम् । वि । उ॒च्छ॒ । न । तत् । ते॒ । अ॒न्याः । उ॒षसः॑ । न॒श॒न्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुसंकाशा मातृमृष्टेव योषाविस्तन्वं कृणुषे दृशे कम्। भद्रा त्वमुषो वितरं व्युच्छ न तत्ते अन्या उषसो नशन्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽसङ्काशा। मातृमृष्टाऽइव। योषा। आविः। तन्वम्। कृणुषे। दृशे। कम्। भद्रा। त्वम्। उषः। विऽतरम्। वि। उच्छ। न। तत्। ते। अन्याः। उषसः। नशन्त ॥ १.१२३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे कन्ये सुसंकाशा योषा मातृमृष्टेव या दृशे तन्वमाविष्कृणुषे भद्रा सती कं पतिं प्राप्नोषि सा त्वं वितरं सुखं व्युच्छ। हे उषो यथा अन्या उषसो न नशन्त तथा ते तत्सुखं मा नश्यतु ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (सुसंकाशा) सुष्ठुशिक्षया सम्यक् शासिता (मातृमृष्टेव) विदुष्या मात्रा सत्यशिक्षाप्रदानेन शोधितेव (योषा) प्राप्तयौवना (आविः) (तन्वम्) शरीरम् (कृणुषे) करोषि (दृशे) द्रष्टुम् (कम्) सुखस्वरूपम् (भद्रा) मङ्गलाचारिणी (त्वम्) (उषः) उषर्वद् वर्त्तमाने (वितरम्) सुखदातारम् (वि) विगतार्थे (उच्छ) विवासय (न) (तत्) (ते) तव (अन्याः) (उषसः) प्रभाताः (नशन्त) नश्यन्ति ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथोषसो नियमेन स्वं स्वं समयं देशं च प्राप्नुवन्ति तथा स्त्रियः स्वकीयं स्वकीयं पतिं प्राप्यर्त्तुं प्राप्नुवन्तु ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे कन्या ! (सुसंकाशा) अच्छी सिखावट से सिखाई हुई (योषा) युवति (मातृमृष्टेव) पढ़ी हुई पण्डिता माता ने सत्यशिक्षा देकर शुद्ध की सी जो (दृशे) देखने को (तन्वम्) अपने शरीर को (आविः) प्रकट (कृणुषे) करती (भद्रा) और मङ्गलरूप आचरण करती हुई (कम्) सुखस्वरूप पति को प्राप्त होती है सो (त्वम्) तूँ (वितरम्) सुख देनेवाले पदार्थ और सुख को (व्युच्छ) स्वीकार कर, हे (उषः) प्रभात वेला के समान वर्त्तमान स्त्री ! जैसे (अन्याः) और (उषसः) प्रभात समय (न) नहीं (नशन्त) विनाश को प्राप्त होते वैसे (ते) तेरा (तत्) उक्त सुख न विनाश को प्राप्त हो ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्रातःकाल की वेला नियम से अपने अपने समय और देश को प्राप्त होती है, वैसे स्त्री अपने-अपने पति को पा कर ऋतुधर्म को प्राप्त होवें ॥ ११ ॥

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    विषय

    मातृमृष्टा योषा इव

    पदार्थ

    १. हे उषे! तू (मातृमृष्टा) = माता से शुद्ध की गई (योषा इव) = कन्या की भाँति (सुसंकाशा) = खूब प्रकाशित होती हुई (तन्वम्) = अपने रूप को (कम्) = सुख के लिए [सुखं यथा भवति तथा - सा०] (दृशे आविः कृणुषे) = दर्शन के लिए प्रकट करती है । कन्या जैसे अपने दीप्त रूप को औरों को दिखाती है और उनके हर्ष का कारण बनती है, इसी प्रकार उषा के दीप्त रूप को देखकर सज्जन आनन्द का अनुभव करते हैं । २. हे (भद्रा) = कल्याण करनेवाली (उषः) = उषे! (त्वम्) = तू (वितरं व्युच्छ) = अन्धकार को अत्यन्त दूर भगानेवाली बन । तू अन्धकार को इस प्रकार दूर भागनेवाली हो कि (ते) = तेरे (तत्) = उस अन्धकार - निवारण के कार्य को (अन्या उषसः) = अन्य उषाएँ (न नशन्त) = व्याप्त करनेवाली न हों । अन्य उषाओं से तू अधिक ही दीप्त हो । प्रस्तुत उषा अन्य उषाओं से उत्तम ही लगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - अन्धकार को दूर करती हुई प्रत्येक उषा हमारे लिए गत उषाओं से उत्तम हो ।

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    विषय

    रात्रि दिन के दृष्टान्त से पति-पत्नी के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    उषा जिस प्रकार ( तन्वं आविः ) विस्तृत प्रभामय देह को प्रकट करती है, ( वितरं विच्छति ) दूरतक अन्धकार को दूर करती है । उसी प्रकार हे ( उषाः ) प्रभातवेला के समान कमनीये ! नवयुवति ! ( योषा ) दोनों कुलों को मिलाने हारी तू ( सुंसंकाशा ) उत्तमरीति से सुशिक्षित होकर ( मातृमृष्टा इव ) माता द्वारा अच्छीप्रकार स्नान, अनुलेप, अलंकार, उत्तम शिक्षा द्वारा सुशोधित और सुशोभित की जाकर ( दृशे ) दिखाने के लिये ( तन्वं ) अपने शरीर को ( आविः कृणुषे ) प्रकट कर । ( त्वम् ) तू ( भद्रा ) मंगल आचार वाली हो कर ( वितरं वि उच्छ ) खूब अपने उत्तम गुणोंको प्रकट कर । ( अन्या उषसः ) अन्य कमनीय कन्याएँ भी ( ते )( तत् ) उस रूपादि शोभा को ( न नशन्त ) प्राप्त न हो । अर्थात् तू सबसे अधिक सुशोभित हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी प्रभात वेळा नियमपूर्वक आपापल्या वेळी व स्थानी पोचते. तसे स्त्रीने आपल्या पतीला प्राप्त करून ऋतुधर्म प्राप्त करावा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Glorious and comely in appearance, a bride as if anointed by the Mother, O youthful Dawn, you reveal the light of your beauty and majesty for the world’s love and adoration. Shine and radiate, O maiden, in all your glory, and may the sublimity of this glory never fade but ever abide as now in future manifestations also.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Dawn-like girl, radiant as a bride well-trained with good education and purified by her learned mother, thou displays' thy person to the view of thy husband when thou most auspicious, get test a bridegroom who is giver of joy to thee. Be source of happiness to thy husband who gives thee delight. May not joy ever decay, as the Dawns do not fade away but come regularly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सुसंकाशा) सुष्ठ शिक्षया सम्यक शासिता = Well-trained by giving good education. (मातृमृष्टा इव) विदुष्या मात्रा सत्यशिक्षा प्रदानेन शोधिता इव = Purified by her learned mother by imparting true education. (वितरम्) सुखदातारम् = Giver of happiness. (उष:) उषर्वद वर्तमाने = Acting like the Dawn.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the Dawns have their movement in appointed time and place (as ordained by the Lord), so should wives approach their husbands in proper season and time, (as ordained by the Shastras).

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