ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान्
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद॒द्य भा॒गं वि॒भजा॑सि॒ नृभ्य॒ उषो॑ देवि मर्त्य॒त्रा सु॑जाते। दे॒वो नो॒ अत्र॑ सवि॒ता दमू॑ना॒ अना॑गसो वोचति॒ सूर्या॑य ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒द्य । भा॒गम् । वि॒ऽभजा॑सि । नृऽभ्यः॑ । उषः॑ । दे॒वि॒ । म॒र्त्य॒ऽत्रा । सु॒ऽजा॒ते॒ । दे॒वः । नः॒ । अत्र॑ । स॒वि॒ता । दमू॑नाः । अना॑गसः । वो॒च॒ति॒ । सूर्या॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्य भागं विभजासि नृभ्य उषो देवि मर्त्यत्रा सुजाते। देवो नो अत्र सविता दमूना अनागसो वोचति सूर्याय ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अद्य। भागम्। विऽभजासि। नृऽभ्यः। उषः। देवि। मर्त्यऽत्रा। सुऽजाते। देवः। नः। अत्र। सविता। दमूनाः। अनागसः। वोचति। सूर्याय ॥ १.१२३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे सुजाते देवि कन्ये त्वमद्य नृभ्य उषरिव यद्यं भागं विभजासि यश्चात्र दमूना मर्त्यत्रा सवितेव देवस्तव पतिः सूर्याय नोऽनागसो वोचति तौ युवां वयं सततं सत्कुर्याम ॥ ३ ॥
पदार्थः
(यत्) यम् (अद्य) (भागम्) भजनीयम् (विभजासि) विभजेः (नृभ्यः) नायकेभ्यः (उषः) प्रभातवत् (देवि) सुलक्षणैः सुशोभिते (मर्त्यत्रा) मर्त्येषु मनुष्येषु (सुजाते) सत्कीर्त्या प्रकाशिते (देवः) देदीप्यमानः (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) अस्मिन् गृहाश्रमे (सविता) सूर्यः (दमूनाः) सुहृद्वरः (अनागसः) अनपराधिनः (वोचति) उच्याः (सूर्याय) परमेश्वरविज्ञानाय ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा द्वौ स्त्रीपुरुषौ विद्यावन्तौ धर्माचारिणौ विद्याप्रचारकौ सदा परस्परस्मिन् प्रसन्नौ भवेतां तदा गृहाश्रमेऽतीव सुखभाजिनौ स्याताम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (सुजाते) उत्तम कीर्ति से प्रकाशित और (देवि) अच्छे लक्षणों से शोभा को प्राप्त सुलक्षणी कन्या ! तूँ (अद्य) आज (नृभ्यः) व्यवहारों की प्राप्ति करनेहारे मनुष्यों के लिये (उषः) प्रातःसमय की वेला के समान (यत्) जिन (भागम्) सेवने योग्य व्यवहार का (विभजासि) अच्छे प्रकार सेवन करती और जो (अत्र) इस गृहाश्रम में (दमूनाः) मित्रों में उत्तम (मर्त्यत्रा) मनुष्यों में (सविता) सूर्य के समान (देवः) प्रकाशमान तेरा पति (सूर्याय) परमात्मा के विज्ञान के लिये (न) हम लोगों को (अनागसः) विना अपराध के व्यवहारों को (वोचति) कहे, उन तुम दोनों का सत्कार हम लोग निरन्तर करें ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब दो स्त्री-पुरुष विद्यावान् धर्म का आचरण और विद्या का प्रचार करनेहारे सब कभी परस्पर में प्रसन्न हों, तब गृहाश्रम में अत्यन्त सुख का सेवन करनेहारे होवें ॥ ३ ॥
विषय
सुजाता व मर्त्यत्रा' उषा
पदार्थ
१.हे (सुजाते) = उत्तमप्रकाश आदि के प्रादुर्भाववाली (उषः देवि) = दीप्यमान उषे! तू (मयंत्रा) = मनुष्यों का त्राण करनेवाली है । २. (यत्) = जब (अद्य) = आज (नृभ्यः) = उन्नति - पथ पर आगे बढ़नेवाले मनुष्यों के लिए तु (भागम्) = सेवनीय धन को (विभजासि) = विभक्त करती है तो (देवः सविता) = सब दिव्य गुणों व द्युतियों का पुज, प्रेरक (दमूनाः) = सबका दमन करनेवाला प्रभु (नः) = हमें (अत्र) = इसी जीवन में (अनागसः) = निष्पाप बने हुओं को (वोचति) = उपदेश देता है । हृदय की निर्मलता होने पर प्रभु की वाणी स्पष्ट सुन पड़ती है । ३. यह प्रभु का उपदेश (सूर्याय) = हमें सुर्य बनाने के लिए होता है । उस उपदेश को सुनकर, अतन्द्रभाव से क्रियाओं को करते हुए हम सूर्य की भाँति चमकने लगते हैं । प्रभु की ज्योति भी सूर्य से उपमित है । हम भी सूर्य के समान बनते हुए प्रभु के ही छोटे रूप बन जाते है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा हमें सेवनीय धनों को प्राप्त कराए । हम निष्पाप बनकर प्रभु की वाणी को सुनें । उसके अनुसार चलते हुए सूर्य की भाँति चमकें ।
विषय
पति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (सुजाते) उत्तम कुल वंश और गुणों में प्रकट होने वाली ! ( उषः देवि ) प्रभात बेलाके समान कमनीय गुणों से युक्त देवि ! कन्ये ! ( यत् ) तूं ( अद्य ) आजके समान सदा ही ( नृभ्यः ) उत्तम पुरुषों के लिये ( भागं ) सेवन करने योग्य अन्न आदिका ( विभजासि ) विशेषरूप से विभाग किया कर । ( अत्र ) इस गृहाश्रम के क्षेत्र में ( नः ) हममें से ( दमूना ) गृहका स्वामी, दमनशील चित्त वाला, जितेन्द्रिय ( देवः ) दानशील विजिगीषु पुरुष ही ( सविता ) पुत्रों को उत्पादन करने वाला तेरा पति हो । ऐसा ही ( दमूनाः ) जितेन्द्रिय, ( देवः ) विद्वान् ( सविता ) सबका उत्पादक आचार्य विद्वान ही ( नः अनागसः ) पाप कर्मों से रहित हम शिष्य और जिज्ञासु जनों को ( सूर्याय ) सूर्य के समान तेजस्वी आदित्य ब्रह्मचारी होने के लिये ( वोचति ) उपदेश करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा हे दोघे स्त्री व पुरुष विद्यायुक्त बनून धर्माचे आचरण करतात व विद्येचा प्रचार करून सदैव परस्पर प्रसन्न असतात तेव्हा गृहस्थाश्रम अत्यंत सुखाचा होतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Dawn, high-born of heaven, inspirer of humanity, whatever share of your generous gifts you bring here to-day for men, let the divine Savita, best of men among friends, brilliant giver of life, say of us to the sun: These are sinless people.$(Swami Dayanand gives an applied inter pretation of this mantra: Usha is the bride beautiful as the dawn, Savita is the groom, Surya is God, and the ‘sinless’ are members of the family. This interpretation prevails through the whole Sukta.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O illustrious lady full of divine virtues ! thou leadest a noble life for the welfare of all leaders and others like the Dawn, dividing the time for various acts. Thy husband also shines like the bright sun among men, on account of his extra-ordinary virtues and is best of friends as a good householder. Let him make us sinless and guileless in order to acquire the knowledge of God. Let us then honor you both constantly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(देवि) सुलक्षणै: सुशोभिते = Adorned with auspicious characteristics or virtues. (सूर्याय) परमेश्वरविज्ञानाय = For the knowledge of God. (भागम्) भजनीयम् = Noble or admirable. [देवि] सुलक्षणै: सुशोभिते
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When both husband and wife are highly educated, righteous, propagators or diffusers of knowledge and wisdom and pleased with one another, it is then they can enjoy demos tie happiness in household life.
Translator's Notes
The word देवी is derived from दिन क्रीड़ा विजिगीषा व्यवहार द्युति स्तुति मोदमद स्वप्न कान्ति गतिषु here the meaning of दयुति and कान्ति have been particularly taken. The word सूर्याय is used here for the Divine Sun-the light of lights. सृ-गतौ He who should be known and attained by all and is all-pervading.
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