ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 129/ मन्त्र 5
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगतिशक्वरी
स्वरः - पञ्चमः
नि षू न॒माति॑मतिं॒ कय॑स्य चि॒त्तेजि॑ष्ठाभिर॒रणि॑भि॒र्नोतिभि॑रु॒ग्राभि॑रुग्रो॒तिभि॑:। नेषि॑ णो॒ यथा॑ पु॒राने॒नाः शू॑र॒ मन्य॑से। विश्वा॑नि पू॒रोरप॑ पर्षि॒ वह्नि॑रा॒सा वह्नि॑र्नो॒ अच्छ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनि । सु । न॒म॒ । अति॑ऽमतिम् । कय॑स्य । चि॒त् । तेजि॑ष्ठाभिः । अ॒रणि॑ऽभिः । न । ऊ॒तिऽभिः॑ । उ॒ग्राभिः॑ । उ॒ग्र॒ । ऊ॒तिऽभिः॑ । नेषि॑ । नः॒ । यथा॑ । पु॒रा । अ॒ने॒नाः । शू॒र॒ । मन्य॑से । विश्वा॑नि । पू॑रोः । अप॑ । प॒र्षि॒ । वह्निः॑ । आ॒सा । वह्निः॑ । नः॒ । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि षू नमातिमतिं कयस्य चित्तेजिष्ठाभिररणिभिर्नोतिभिरुग्राभिरुग्रोतिभि:। नेषि णो यथा पुरानेनाः शूर मन्यसे। विश्वानि पूरोरप पर्षि वह्निरासा वह्निर्नो अच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठनि। सु। नम। अतिऽमतिम्। कयस्य। चित्। तेजिष्ठाभिः। अरणिऽभिः। न। ऊतिऽभिः। उग्राभिः। उग्र। ऊतिऽभिः। नेषि। नः। यथा। पुरा। अनेनाः। शूर। मन्यसे। विश्वानि। पूरोः। अप। पर्षि। वह्निः। आसा। वह्निः। नः। अच्छ ॥ १.१२९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 129; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कोऽत्र सुखदायी भवतीत्याह ।
अन्वयः
हे उग्र शूर विद्वंस्त्वं तेजिष्ठाभिररणिभिरुग्राभिरूतिभिर्नोतिभिरतिमतिं विनम। यथऽनेनाः पुरा नयति तथा नो मन्यसे सुनेष्यासा वह्निरिव नोऽच्छ पर्षि कयस्य पुरोश्चित् वह्निस्त्वं विश्वानि दुःखान्यपनेषि स त्वमस्माभिः सेवनीयोऽसि ॥ ५ ॥
पदार्थः
(नि) (सु) शोभने (नम) नम्रो भव (अतिमतिम्) अतिशयिता चासौ मतिश्च ताम् (कयस्य) विज्ञातुः (चित्) अपि (तेजिष्ठाभिः) अतिशयेन तेजस्विनीभिः (अरणिभिः) सुखप्रापिकाभिः (न) इव (ऊतिभिः) रक्षणाद्याभिः (उग्राभिः) तीव्राभिः (उग्र) तेजस्विन् (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (नेषि) (नः) अस्मान् (यथा) येन प्रकारेण (पुरा) पूर्वम् (अनेनाः) अविद्यमानमेनः पापं यस्य सः (शूर) दुष्टहिंसक (मन्यसे) जानासि (विश्वानि) सर्वाणि (पूरोः) विदुषो मनुष्यस्य। पूरव इति मनुष्यना०। निघं० २। ३। (अप) (पर्षि) सिञ्चसि (वह्निः) वोढा (आसा) अन्तिके (वह्निः) वोढा (नः) अस्मान् (अच्छ) शोभने ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यो मनुष्याणां बुद्धिं सुरक्षया वर्द्धयित्वा पापेष्वश्रद्धां जनयति स एव सर्वान् सुखानि नेतुं शक्नोति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस संसार में कौन सुख का देनेवाला होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (उग्र) तेजस्वी (शूर) दुष्टों को मारनेवाले विद्वान् ! (तेजिष्ठाभिः) अतीव प्रातपयुक्त (अरणिभिः) सुख देनेवाली (उग्राभिः) तीव्र (ऊतिभिः) रक्षा आदि क्रियाओं (न) के समान (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अतिमतिम्) अत्यन्त विचारवाली बुद्धि को (नि, नम) नमो अर्थात् नम्रता के साथ वर्त्तो वा (यथा) जैसे (अनेनाः) पापरहित मनुष्य (पुरा) पहिले उत्तम कामों की प्राप्ति करता वैसे (नः) हम लोगों को आप (मन्यसे) जानते और (सु, नेषि) सुन्दरता से अच्छे कामों को प्राप्त कराते वा (आसा) अपने पास (वह्निः) पहुँचानेवाले के समान (नः) हमको (अच्छ, पर्षि) अच्छे सींचते वा (कयस्य) विशेष ज्ञान देने और (पूरोः) पूरे विद्वान् मनुष्य के (चित्) भी (वह्निः) पहुँचानेवाले आप (विश्वानि) समग्र दुःखों को (अप) दूर करते हो सो आप हम लोगों के सेवन करने योग्य हो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्यों की बुद्धि को उत्तम रक्षा से बढ़ा कर पाप कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न करता, वही सभों को सुखों को पहुँचा सकता है ॥ ५ ॥
विषय
निरभिमानिता
पदार्थ
१. हे (उग्र) = तेजस्विन् प्रभो! (तेजिष्ठाभिः अरणिभिः) = अत्यन्त तेजस्विता से पूर्ण मागों के समान [अरणिः - path, way] (उग्राभिः ऊतिभिः) = उत्कृष्ट रक्षणों के द्वारा (ऊतिभिः) = अपने संरक्षण से (कयस्यचित्) = जिस किसी अपने भक्त की (अतिमतिम्) = अभिमानवृत्ति को (सु) = अच्छी प्रकार (नि नम) = झुकानेवाले होओ । प्रभु अपने भक्तों को ऐसे मार्गों से ले-चलते हैं, जो मार्ग उनकी शक्ति को क्षीण नहीं करते । साथ ही प्रभु उन्हें रोगों व पापों के आक्रमण से बचाते हैं । इस प्रकार उनके जीवन को अत्युत्तम बनाकर वे उन्हें निरभिमान भी रखते हैं । २. हे (शूर) = हमारे शत्रुओं को नष्ट करनेवाले प्रभो! (नः) = हमें (यथा पुरा) = पहले की भाँति अब भी (नेषि) = उन्नति पथ पर ले-चलिए । हे प्रभो! आप (अनेनाः) = अत्यन्त निष्पाप हैं और इसीलिए (मन्यसे) = ठीक ज्ञानवाले हैं । हमारे विषय में भी आपका ज्ञान ही ठीक है, अतः आप जैसे चाहें, हमें ले - चलें । (वह्निः) = हमें आगे ले-चलनेवाले आप (पूरोः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले मनुष्य के (विश्वानि) = अन्दर घुस जानेवाले सभी काम-क्रोधादि शत्रुओं को (अपपर्षि) = दूर करते हो । (वह्निः) = हमें आगे ले जानेवाले आप (आसा) = मुख के द्वारा, ज्ञानोपदेश के द्वारा (नः अच्छ) = हमारे अभिमुख प्राप्त होओ । आपसे उपदेश प्रास करके हम निरन्तर आगे बढ़ें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु से उपदिष्ट मार्ग व प्रभु के रक्षण हमें उत्कृष्ट जीवनवाला बनाकर अभिमान की वृत्ति से ऊपर उठाते हैं ।
विषय
शूरवीर पुरुष और ऐश्वर्यवान् राजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( शूर) शूरवीर पुरुष ! ( तेजिष्ठाभिः ) अति अधिक तेज युक्त ( अरणिभिः ) लकड़ियों से युक्त ( वन्हिं न ) अग्नि जिस प्रकार ( कयस्य चित् अतिमतिं नमति ) जल के अधिक शमन बल को प्राप्त होकर झुक जाता है, शान्त हो जाता है इसी प्रकार हे शूरवीर पुरुष ! तू स्वयं ( उग्राभिः ) अति भयंकर ( तेजिष्ठाभिः ) अतितेज या पराक्रम से युक्त ( अरणिभिः ) वेग से आगे बढ़ने वाली ( ऊतिभिः ) रक्षाकारिणी सेनाओं से युक्त होकर भी ( न ) उनके समान ( तेजिष्ठाभिः ) तेज, ओज से युक्त ( अरणिभिः ) रथादि से गमन करने वाली, अथवा ज्ञान बल से दूर तक पहुंचाने वाली ( उग्राभिः ) भयंकर, शत्रुओं में उद्वेग मचा देने वाली ( ऊतिभिः ) साधनों से युक्त ( कयस्य चत् ) ज्ञानवान्, ज्ञानोपदेष्टा विद्वान् पुरुष की ( अतिमतिं ) बहुत अधिक बड़ी बुद्धि या ज्ञान के आगे ( नि सु नम चित् ) नियम से पूजा के निमित्त आदर से, शिष्य के समान झुक, उस का आदर कर । ( यथापुरा ) पूर्वकाल के समान ही तू ( अनेनाः ) स्वयं अपराध और पाप से रहित, सदाचारी, धर्मात्मा रहकर ( नः नेषि ) हमें सन्मार्ग पर चला । तू ( मन्यसे ) सब कुछ जानता है । ( वन्हिः न ) तू अग्नि के समान ही ( वन्हिः ) समस्त कार्यभार को अपने ऊपर उठाने वाला, उत्तरदाता, जिम्मेदार होकर ( पूरोः विश्वानि अप ) मनुष्यों के सब दुःखों को दूरकर और ( आसा ) समीप रह कर या ( आसा ) अपने प्रमुख पद से, या सुख द्वारा आज्ञा और उपदेश द्वारा ( पर्षि ) पालन कर, जल सेचन से कृषक के समान उनको सब ऐश्वर्य दे । इति षोडशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृदत्यष्टिः । ३ विराडत्यष्टिः । ४ अष्टिः । ६, ११ भुरिगष्टिः । १० निचृष्टि: । ५ भुरिगतिशक्वरी ७ स्वराडतिशक्वरी । ८, ९ स्वराट् शक्वरी । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो माणसाच्या बुद्धीचे उत्तम रक्षण करून वृद्धी करतो व पापामध्ये अश्रद्धा उत्पन्न करतो. तोच सर्वांना सुख देऊ शकतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In all grace, bow down before the exceptional wisdom of the learned. And bring down the haughty pride of the notorious enemy, O fierce lord of raging power and rectitude, with your burning and brilliant methods and actions of defence and protection blazing like the radiant flames of the fire of arani wood. You know us all, O brave, heroic and sinless, lead us forward as before, wash off all sin and evil from the life of humanity. Bearer of the burdens of existence, harbinger of all that is good, like fire, burn off our evil and let us shine close to your presence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who is giver of happiness here in this world is told in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O powerful learned person, full of splendour thou shouldst bow before a highly intelligent person with thy powerful aids and protections which lead to happiness. As a sinless person leads a man forward, in the same manner, thou knowest us well and leadest us on beautifully and guidest us. Thou takest us forward well from near like the fire. Thou alleviatest all our suffering like the fire, being the bearer of even a learned man. Thou art therefore to be always worshipped by us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अरणिभिः) सुखप्रापिकाभिः = Leading to happiness. ऋ-गतिप्रापणयोः (आसा ) अन्तिके = Near. (पूरो:) विदुषो मनुष्यस्य पूरवइति मनुष्यनाम (निधo २.३ ) = Of a learned person. (कयस्य) विज्ञातुः = Of a knower.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only that man can enjoy all happiness, who always augments the intellect of men and afterwards creates hatred or repulsion for sins.
Translator's Notes
आसा इत्यन्तिकामा (निघ० २.१६)
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