Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 129 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 129/ मन्त्र 11
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    पा॒हि न॑ इन्द्र सुष्टुत स्रि॒धो॑ऽवया॒ता सद॒मिद्दु॑र्मती॒नां दे॒वः सन्दु॑र्मती॒नाम्। ह॒न्ता पा॒पस्य॑ र॒क्षस॑स्त्रा॒ता विप्र॑स्य॒ माव॑तः। अधा॒ हि त्वा॑ जनि॒ता जीज॑नद्वसो रक्षो॒हणं॑ त्वा॒ जीज॑नद्वसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒हि । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । सु॒ऽस्तु॒त॒ । स्रि॒धः । अ॒व॒ऽया॒ता । सद॒म् । इत् । दुः॒ऽम॒ती॒नाम् । दे॒वः । सन् । दुः॒ऽम॒ती॒नाम् । ह॒न्ता । पा॒पस्य॑ । र॒क्षसः॑ । त्रा॒ता । विप्र॑स्य । माव॑तः । अध॑ । हि । त्वा॒ । ज॒नि॒ता । जीज॑नत् । व॒सो॒ इति॑ । र॒क्षः॒ऽहन॑म् । त्वा॒ । जीज॑नत् । व॒सो॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पाहि न इन्द्र सुष्टुत स्रिधोऽवयाता सदमिद्दुर्मतीनां देवः सन्दुर्मतीनाम्। हन्ता पापस्य रक्षसस्त्राता विप्रस्य मावतः। अधा हि त्वा जनिता जीजनद्वसो रक्षोहणं त्वा जीजनद्वसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पाहि। नः। इन्द्र। सुऽस्तुत। स्रिधः। अवऽयाता। सदम्। इत्। दुःऽमतीनाम्। देवः। सन्। दुःऽमतीनाम्। हन्ता। पापस्य। रक्षसः। त्राता। विप्रस्य। मावतः। अध। हि। त्वा। जनिता। जीजनत्। वसो इति। रक्षःऽहनम्। त्वा। जीजनत्। वसो इति ॥ १.१२९.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 129; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विदुषां किं कर्त्तव्यमस्तीत्याह ।

    अन्वयः

    हे सुष्टुतेन्द्रावयाता देवः सन् दुर्मतीनां सदमिव दुर्मतीनां प्रचारं हत्वा स्रिधो नोऽस्मान् पाहि। हे वसो जनिता यं रक्षोहणं त्वा जीजनत्। हे वसो यं त्वा रक्षकं जीजनत् स हि त्वमध पापस्य रक्षसो हन्ता मावतो विप्रस्य त्राता भव ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (पाहि) (नः) अस्मान् (इन्द्र) सभेश (सुष्टुत) सुष्ठुप्रशंसित (स्रिधः) दुःखनिमित्तात् पापात् (अवयाता) विरुद्धं गन्ता (सदम्) स्थानम् (इत्) इव (दुर्मतीनाम्) दुष्टानां मनुष्याणाम् (देवः) सत्यं न्यायं कामयमानः (सन्) (दुर्मतीनाम्) दुष्टधियां मनुष्याणाम् (हन्ता) (पापस्य) पापाचारस्य (रक्षसः) परपीडकस्य (त्राता) रक्षकः (विप्रस्य) मेधाविनो धार्मिकस्य (मावतः) मत्सदृशस्य (अध) आनन्तर्ये (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (जनिता) (जीजनत्) जनयेत्। अत्र लुङ्यडभावः। (वसो) यः सज्जनेषु वसति तत्संबुद्धौ (रक्षोहणम्) (त्वा) त्वाम् (जीजनत्) जनयेत् (वसो) विद्यासु वासयितः ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। इदमेव विदुषां प्रशंसनीयं कर्माऽस्ति यत् पापस्य खण्डनं धर्मस्य मण्डनमिति न केनाऽपि दुष्टस्य सङ्गः श्रेष्ठसङ्गत्यागश्च कर्त्तव्य इति ॥ ११ अत्र विद्वद्राजधर्मवर्णनादेतत्सूक्तोक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्येकोनत्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सुष्टुत) उत्तम प्रशंसा को प्राप्त (इन्द्र) सभापति ! (अवयाता) विरुद्ध मार्ग को जाते और (देवः) सत्य न्याय की कामना अर्थात् खोज करते (सन्) हुए (दुर्मतीनाम्) दुष्ट मनुष्यों के (सदम्) स्थान के (इत्) समान (दुर्मतीनाम्) दुष्ट बुद्धिवाले मनुष्यों के प्रचार का विनाश कर (स्रिधः) दुःख के हेतु पाप से (नः) हम लोगों को (पाहि) रक्षा करो। हे (वसो) सज्जनों में वसनेहारे (जनिता) उत्पन्न करनेहारा पिता, गुरु जिस (रक्षोहणम्) दुष्टों के नाश करनेहारे (त्वा) आपको (जीजनत्) उत्पन्न करे। वा हे (वसो) विद्याओं में वास अर्थात् प्रवेश करानेहारे ! जिन रक्षा करनेवाले (त्वा) आपको (जीजनत्) उत्पन्न करे सो (हि) ही आप (अथ) इसके अनन्तर (पापस्य) पाप आचरण करनेवाले (रक्षसः) राक्षस अर्थात् औरों को पीड़ा देनेहारे के (हन्ता) मारनेवाले तथा (मावतः) मेरे समान (विप्रस्य) बुद्धिमान् धर्मात्मा पुरुष की (त्राता) रक्षा करनेवाले हूजिये ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यही विद्वानों का प्रशंसा करने योग्य काम है जो पाप का खण्डन और धर्म का मण्डन करना, किसी को दुष्ट का सङ्ग और श्रेष्ठजन का त्याग न करना चाहिये ॥ ११ ॥इस सूक्त में विद्वानों और राजजनों के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ उनतीसवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्तुति व पवित्र जीवन का

    पदार्थ

    १. हे (सुष्टुत) = उत्तमता से स्तुत हुए-हुए (इन्द्र) = शत्रु-विनाशक प्रभो! आप (नः) = हमें (स्त्रिधः) = प्रत्येक कुत्सित व निन्दनीय पाप से (पाहि) = बचाइए, हमें अशुभ से सदा दूर रखिए । आप (सदम् इत्) = सदा ही (दुर्मतीनाम्) = दुष्ट विचारवाले पुरुषों को (अवयाता) = हमसे दूर करनेवाले हैं । (देवः सन्) = हमारे जीवनों को प्रकाशमय बनानेवाले होते हुए आप [देवो द्योतनाद्-निरु०] (दुर्मतीनाम् अवयाता) = दुष्ट विचारों को हमसे दूर करनेवाले हैं । २. दुष्ट विचारों को दूर करके आप (रक्षसः) = राक्षसी वृत्तिवाले (पापस्य) = पापी के (हन्ता) = नष्ट करनेवाले हैं । दुष्ट विचारों को दूर करके आप राक्षसीपन और पापवृत्ति को कुचल देते हैं । हे इन्द्र! आप (मा-वतः) = ज्ञानलक्ष्मी से सम्पन्न (विप्रस्य) = अपनी कमियों को दूर करके अपना पूरण करनेवाले का (त्राता) = प्राण करनेवाले हैं । ज्ञान बढ़ाकर आप हमारे जीवन को पवित्र करते हैं और इस प्रकार हमें पापों में फैसने से बचाते हैं । ३. हे (वसो) = हमारे जीवनों को उत्तम निवासवाला बनानेवाले प्रभो! (जनिता) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाला जीव (त्वा) = आपको (अध हि) = पापवृत्तियों की समाप्ति के बाद ही (जीजनत्) = अपने हृदय में प्रकट करता है । है (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो! (रक्षोहणं त्वा) = राक्षसी वृत्तियों का विनाश करनेवाला आपको (जीजनत्) = प्रकट करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करते हैं, प्रभु हमारी बुराइयों व दुर्विचारों को दूर करके हमें पवित्र जीवनवाला बनाते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वीर राजा रक्षक का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! आचार्य सभा सेनापते ! हे (सुस्तुत) उत्तम रीति से स्तुति योग्य ! तू ( देवः सन् ) प्रजा को और उनके ऐश्वर्य वृद्धि, न्याय शासन आदि की कामना करता हुआ ( नः ) हमें ( स्त्रिधः ) दुःखजनक पाप से ( पाहि ) बचा । तू ( सदम् इत् ) सदा ही ( दुर्मतीनाम् ) दुष्ट मति वाले दुष्ट पुरुषों और उनकी ( दुर्मतीनाम् ) दुष्ट कामनाओं को भी ( अवयाता ) नीचे गिरा देने वाला है । तू ( रक्षसः ) विघ्नकारी ( पापस्य ) पापाचारी पुरुष का ( हन्ता ) मारने वाला, दण्ड देने वाला है । और तू ( मावतः ) मेरे जैसे आत्मवान्, सच्चरित्र ( विप्रस्य ) विद्वान् पुरुष का ( त्राता ) त्राण करने वाला हो । हे ( वसो ) स्वयं सब के भीतर बसने वाले ! हे ( वसो ) सब को अपने आश्रय पर वसाने वाले । ( जनिता ) उत्तम उत्पादक परमेश्वर या पिता ने ( त्वा जीजनत् ) तुझको उत्पन्न किया है और तुझको ( रक्षोहणं जीजनत् ) राक्षस, विघ्नकारी, दुष्ट पुरुषों का नाश करने और दण्ड देनेहारा पैदा किया, और बनाया है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृदत्यष्टिः । ३ विराडत्यष्टिः । ४ अष्टिः । ६, ११ भुरिगष्टिः । १० निचृष्टि: । ५ भुरिगतिशक्वरी ७ स्वराडतिशक्वरी । ८, ९ स्वराट् शक्वरी । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वानांचे हेच प्रशंसनीय कार्य आहे. ते म्हणजे पापाचे खंडन व धर्माचे मंडन करणे होय. कुणीही दुष्टांची संगती व श्रेष्ठांचा त्याग करू नये. ॥ ११ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, sung and celebrated for honour and graciousness, protect us from error, blunder and loss of faith. Always averting the envious and malicious, being brilliant and lustrous, you take the evil-minded down to the pit. Destroyer of the sinful and demonic killers, saviour of the pious and noble scholars and people like me, haven and home of the needy, may the lord creator of life rejuvenate you ever. Destroyer of sin and cruelty, shelter of the good, may the lord bless you ever with new life, energy and knowledge.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the duty of learned men is told further in the eleventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O deservedly lauded Indra (King or President of the Assembly) preserve us from suffering and its cause-sin. Desiring truth and justice and always going against the wicked, thou art verily the Chastiser of the malevolent, thou art the chastiser of the wicked ignoble persons. O support of men, making them to dwell in the light of knowledge, the Progenitor (God) has made thee, the destroyer of the Rakshasas (wicked persons). He has made thee the protector of the righteous. Therefore, being slayer of the sinners and wicked, be the protector or preserver of a righteous wiseman like me.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (स्त्रिधः ) दुःखनिमित्तात् पापात् = From sin that is the cause of suffering. (वसो ) यः सज्जनेषु वसति तत्सम्बुद्धौ = Dwelling among good men. २ विद्यासु वासयितः = Making the people dwell in various sciences i. e. making them learned.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    This is the admirable work of the enlightened persons, to refute or condemn sin and to support Dharma (Righteousness) None should keep company with unrighteous persons and give up the association of the noble righteous persons.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of the duties of a learned person and a King. Here ends the commentary on the 129th hymn and seventeenth Verga of the Rigveda.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top