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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 149 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 149/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स यो वृषा॑ न॒रां न रोद॑स्यो॒: श्रवो॑भि॒रस्ति॑ जी॒वपी॑तसर्गः। प्र यः स॑स्रा॒णः शि॑श्री॒त योनौ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । यः । वृषा॑ । न॒रान् । न । रोद॑स्योः । श्रवः॑ऽभिः । अस्ति॑ । जी॒वपी॑तऽसर्गः । प्र । यः । स॒स्रा॒णः । शि॒श्री॒त । योनौ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यो वृषा नरां न रोदस्यो: श्रवोभिरस्ति जीवपीतसर्गः। प्र यः सस्राणः शिश्रीत योनौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। यः। वृषा। नरान्। न। रोदस्योः। श्रवःऽभिः। अस्ति। जीवपीतऽसर्गः। प्र। यः। सस्राणः। शिश्रीत। योनौ ॥ १.१४९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 149; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यः श्रवोभिर्नरां न रोदस्योर्जीवपीतसर्गोऽस्ति यश्च सस्राणो योनौ प्रशिश्रीत स वृषास्ति ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (सः) (यः) (वृषा) श्रेष्ठो बलिष्ठः (नराम्) नृणाम् (न) इव (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः (श्रवोभिः) अन्नादिभिः सह (अस्ति) (जीवपीतसर्गः) जीवैः सह पीतः सर्गो येन (प्र) (यः) (सस्राणः) सर्वगुणदोषान् प्राप्नुवन् (शिश्रीत) श्रयेत (योनौ) कारणे ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यो नायकेषु नायकः पृथिव्यादिकार्यकारणविद्विद्यामाश्रयति स एव सुखी जायते ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो (श्रवोभिः) अन्न आदि पदार्थों के साथ (नराम्) मनुष्यों के बीच (न) जैसे वैसे (रोदस्योः) आकाश और पृथिवी के बीच (जीवपीतसर्गः) जीवों के साथ पिया है सृष्टिक्रम जिसने अर्थात् विद्या बल से प्रत्येक जीव के गुण-दोषों को उत्पत्ति के साथ जाना वा (यः) जो (सस्राणः) सब पदार्थों के गुण-दोषों को प्राप्त होता हुआ (योनौ) कारण में अर्थात् सृष्टि के निमित्त में (प्र, शिश्रीत) आश्रय करे उसमें आरूढ़ हो (सः) वह (वृषा) श्रेष्ठ बलवान् (अस्ति) है ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो नायकों में नायक, पृथिवी आदि पदार्थों के कार्य कारण को जाननेवालों की विद्या का आश्रय करता है, वही सुखी होता है ॥ २ ॥

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    विषय

    'सुखवर्षक' प्रभु

    पदार्थ

    १. प्रभु (सः) = वे हैं (यः) = जो (नरां वृषा) = सब मनुष्यों को सुखों व शक्तियों से सिक्त करनेवाले हैं। मनुष्यों को ही क्या [नरां] (न) = मनुष्यों की भाँति (रोदस्योः) [वृषा] = द्युलोक व पृथिवीलोक को, अर्थात् सब प्राणियों को सुखों से सिक्त करते हैं। वे प्रभु (श्रवोभिः) = ज्ञान के द्वारा (जीवपीतसर्गः) = जीवों से आस्वादित सृष्टिवाले (अस्ति) = हैं। प्रभु की इस सृष्टि का आनन्द जीव इसके ज्ञान द्वारा ही तो ले सकते हैं। जिस पदार्थ का हमें ज्ञान नहीं, उसके ठीक प्रयोग के अभाव में उससे प्राप्त होनेवाले आनन्द को हम कैसे ले सकते हैं? इन पदार्थों का ठीक ज्ञान ही हमें इनसे सुखी कर सकता है। प्रभु ने इस सृष्टि में सब सुख-साधनों को बड़ी उत्तमता से जुटाया है। २. ये सुखवर्षक प्रभु वे हैं (यः) = जो (सस्त्राणः) = [सृ] निरन्तर गति करते हुए (योनौ) = मूल उत्पत्तिस्थान में (प्रशिश्रीत) = प्रकर्षेण हमारा परिपाक करते हैं। जिस समय हम इन्द्रियों को मन में, मन को बुद्धि में, बुद्धि को आत्मा में तथा आत्मा को परमात्मा में रोकते हैं उस समय हम मूल उत्पत्तिस्थान में पहुँच गये होते हैं। यहाँ पहुँचने पर वे प्रभु हमारा पूर्ण परिपाक करनेवाले होते हैं। इस समय हमारी सब न्यूनताएँ भस्म हो जाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की सृष्टि हमपर सुखों की वर्षा करती है। प्रभु अपने में स्थित होनेवाले को पूर्ण परिपक्व बनाते हैं ।

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    विषय

    सूर्यवत् नायक और परमेश्वर का प्रजासर्ग-पालन ।

    भावार्थ

    ( रोदस्योः न ) भूमि आकाश के बीच में स्थित जिस प्रकार ( वृषा श्रवोभिः जीवपीतसर्गः ) बरसने वाला मेघ अन्नों द्वारा ही जीवों से अपने उत्पन्न किये उत्तम अन्न जलादि भोगों को भुगवाता है और वह ( यौनौ सस्राणः शिश्रीत ) अन्तरिक्ष में गति करता और व्यापता हुआ विराजता है और जिस प्रकार सूर्य ( नरां वृषा ) सब नायक वायुओं में जलों को बरसाने वाला है, वही ( श्रवोभिः ) अन्नों द्वारा या स्रवण से ( जीवपीतसर्गः ) जीवों को जल पिलाने हारा है ( यौनौ सस्राणः शिश्रीत ) अन्तरिक्ष में स्थित होकर, और व्याप कर भी सब औषधियों और जीवों को ताप द्वारा संतप्त करता और पकाता है । उसी प्रकार ( यः ) जो ( रोदस्योः ) राजा प्रजावर्ग और माता पिता के बीच में ( श्रवोभिः ) श्रवण करने योग्य ज्ञानोपदेश और कीर्तियों से ( जीवपीतसर्गः अस्ति ) जीवित पुरुषों और प्राणियों को नाना सृष्टि के सुख शीतल जलों के समान पिलाता है, सब को सुख पहुंचाता है और ( यः ) जो ( सस्राणः ) प्रजाओं में और आश्रित जनों में प्रविष्ट होकर । ( यौनौ ) गृह में और अपने पद पर ( प्र शिश्रीत ) अच्छी प्रकार विराजे और अन्यों को आश्रय देवे और शत्रुओं को संतापित करे ( सः ) वह ही ( नरां वृषा ) सब नायकों और पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, नायक पुरुष कहाने योग्य है । ( २ ) परमेश्वर सुखों का वर्षक होने से वृषा । सब संसार के कर्म फलों को भुगवाता है । वह ही ( योनौ ) गर्भाशय में प्रवेश कराता हुआ जीव को पकाता या परिपक्व कर्म फल देता है । जीव पक्ष में—जीव होकर सर्ग अर्थात् कर्म या उपभोग करता है और जो योनि में स्वयं जन्मजन्मान्तर से आश्रय लेता है वह ही सब ( नरां वृषा ) देह के नायक प्राणों में श्रेष्ठ, उनमें शक्ति संचारक आत्मा है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ भुरिगनुष्टुप् । २, ४ निचृदनुष्टुप् । ५ विरानुष्टुप् । ३ उष्णिक् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो नायकांमध्ये नायक असतो. पृथ्वी इत्यादी पदार्थांचे कार्य कारण जाणणाऱ्या विद्येचा आश्रय घेतो तोच सुखी होतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Abundant and generous is he like the clouds of rain, who, in the midst of heaven and earth as amidst humanity, has drunk deep of the joy of creation, and, dynamically pervading the universe with his majesty, who abides at the centre of the form and identity of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The path of happiness is pointed out.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A well reputed and distinguisher between good and bad persons is mighty and the best among all. He is happy in both the worlds-heaven and earth. Being acquainted with the merits and demerits of all, such a person takes shelter in and supports the laudable causes of the humanity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That man enjoys true happiness who being the best among leaders, knows well the cause and effect of earth and other elements and attains true wisdom.

    Foot Notes

    (जीवपीतसर्गः) जीवैः सह पीत: सर्ग: (सृष्टिक्रम:) येन – He who has understood well the order of the world. (सस्त्राण:) सर्वगुणदोषान्प्राप्नुवन् - Getting the knowledge of the merits and demerits of all things.

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