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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 149 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 149/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    आ यः पुरं॒ नार्मि॑णी॒मदी॑दे॒दत्य॑: क॒विर्न॑भ॒न्यो॒३॒॑ नार्वा॑। सूरो॒ न रु॑रु॒क्वाञ्छ॒तात्मा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यः । पुर॑म् । नार्मि॑णीम् । अदी॑देत् । अत्यः॑ । क॒विः । न॒भ॒न्यः॑ । नार्वा॑ । सूरः॑ । न । रु॒रु॒क्वान् । श॒तऽआ॑त्मा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यः पुरं नार्मिणीमदीदेदत्य: कविर्नभन्यो३ नार्वा। सूरो न रुरुक्वाञ्छतात्मा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यः। पुरम्। नार्मिणीम्। अदीदेत्। अत्यः। कविः। नभन्यः। नार्वा। सूरः। न। रुरुक्वान्। शतऽआत्मा ॥ १.१४९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 149; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    योऽत्यो नभन्यो न कविरर्वा सूरो न रुरुक्वान् शतात्मा जनो नार्मिणीं पुरमादीदेत् प्रकाशयेत् स न्यायं कर्त्तुमर्हति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (यः, पुरम्) (नार्मिणीम्) नर्माणि क्रीडाविलासा विद्यन्ते येषां तेषामिमाम् (अदीदेत्) (अत्यः) अतति व्याप्नोतीति (कविः) क्रान्तप्रज्ञः (नभन्यः) नभसि भवो नभन्यो वायुः। अत्र वर्णव्यत्ययेन नकारादेशः। नभ इति साधारणना०। निघं० १। ४। (न) इव (अर्वा) अश्वः (सूरः) सूर्यः (न) इव (रुरुक्वान्) रुचिमान् (शतात्मा) शतेष्वसंख्यातेषु पदार्थेष्वात्मा विज्ञानं यस्य सः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। योऽसंख्यातपदार्थविद्यावित् सुशोभितां नगरीं वासयेत् स ऐश्वर्यैः सवितेव प्रकाशमानः स्यात् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो (अत्यः) व्याप्त होनेवाला (नभन्यः) आकाश में प्रसिद्ध पवन उसके (न) समान (कविः) क्रम-क्रम से पदार्थों में व्याप्त होनेवाली बुद्धिवाला वा (अर्वा) घोड़ा और (सूरः) सूर्य के (न) समान (रुरुक्वान्) रुचिमान् (शतात्मा) असंख्यात पदार्थों में विशेष ज्ञान रखनेवाला जन (नार्मिणीम्) क्रीडाविलासी आनन्द भोगनेवाले जनों की (पुरम्) पुरी को (आदीदेत्) अच्छे प्रकार प्रकाशित करे वह न्याय करने योग्य होता है ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो असंख्यात पदार्थों की विद्याओं को जाननेवाला अच्छी शोभायुक्त नगरी को बसावे, वह ऐश्वर्यों से सूर्य के समान प्रकाशमान हो ॥ ३ ॥

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    विषय

    'सूर्य के समान दीप्त' प्रभु

    पदार्थ

    १. प्रभु वे हैं (यः) = जो (नार्मिणीम्) = [नृणां मनसि स्थितम्] मनुष्यों को प्रिय लगनेवाली इस देह नामक (पुरम्) = पुरी को (अदीदेत् सर्वतः) = दीप्त कर देते हैं। स्थूलशरीर को स्वास्थ्य से दीप्त करते हैं तो सूक्ष्म को ज्ञान से दीप्त बनाते हैं । (अत्यः) = वे प्रभु निरन्तर गतिशील [कर्मशील] हैं, अपनी सब प्रजाओं के हित में तत्पर हैं, (कविः) = क्रान्तदर्शी- सर्वज्ञ हैं । २. (नभन्यः न) = आकाश में गतिवाली वायु के समान (अर्वा) = गतिशील हैं, इन वायु इत्यादि को वे ही तो गति देते हैं । वे (सूरः न रुरुक्वान्) = सूर्य के समान दीप्त हैं। वायु की भाँति गतिशील व सब अवाञ्छनीय तत्त्वों का हिंसन करनेवाले होते हुए [अर्व = to kill] हमें आयुष्य को प्राप्त कराते हैं और सूर्य की भाँति चमकते हुए वे प्रभु हमें ज्ञान की ज्योति प्रदान करते हैं । (शतात्मा) = अनन्त रूपोंवाले वे प्रभु हैं। 'रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव' । वस्तुतः सभी को रूप देनेवाले वे प्रभु विश्वरूप हैं। हमें भी आयुष्य व ज्ञान देकर वे प्रभु ही उत्तम रूपवाला करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी शरीररूप इस नगरी को प्रभु ही दीप्त बनाते हैं। वे वायु की भाँति 'जीवन' देते हैं तो सूर्य की भाँति ज्ञान का प्रकाश ।

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    विषय

    उसका शासन ।

    भावार्थ

    ( अर्वा न ) जिस प्रकार अश्व ( नार्मिणीम् पुरं अदीदेत् ) नाना विलास योग्य सुखों से सम्पन्न पुरुषों की नागरी को सुशोभित करता है ( सूर न ) और जिस प्रकार सूर्य ( रुरुक्वान् शतात्मा ) तेजस्वी होकर सैकड़ों स्थानों में व्याप्त होता है उसी प्रकार ( यः ) जो (अत्यः) सर्वत्र जाने हारा, व्यापक अधिकारवान् ( कविः ) क्रान्तदर्शी, अति विद्वान्, ( नभन्यः ) आकाश में व्यापक, वायु के समान बलवान्, वेगवान् और ( न-भन्यः = न हन्यः ) किसी से भी परास्त न होने वाला, किसी से भी न हनन करने योग्य हो, वह नायक ही ( नार्मिणीम् ) नाना विलासों से भरी पूरी ( पुरं ) नगरी को (आ अदीदेत् ) सब प्रकार से चमका देता है । वह ही नगरी का राजा होने योग्य है । वह ( सूरः न ) सूर्य के समान ( रुरूक्कान् ) अति तेजस्वी और ( शतात्मा ) सैकड़ों प्रजाजनों और भृत्यों को आत्मा के समान प्रिय, और जीवन दाता होकर रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ भुरिगनुष्टुप् । २, ४ निचृदनुष्टुप् । ५ विरानुष्टुप् । ३ उष्णिक् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो असंख्य पदार्थ विद्येचा जाणकार असून सुशोभित नगर वसवितो तो ऐश्वर्ययुक्त बनून सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान होतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, who has illuminated the celestial city of this imperishable soul, who is fast as the winds of space and faster than sunbeams, is the visionary creator of the worlds of eternity, blazing as the very soul of a thousand suns.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Attributes of a merited person.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The man who is active and is like the pervasive etheral wind, is wise like a sage, an energetic person like a carefully racing horse and radiant like the sun. He illuminates his community. Such a man enjoys life well and is worthy of dispensing justice. Such a person possesses knowledge of the immoveable objects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The person possessing the knowledge of innumerable objects lays out a beautiful city. He shines with wealth and noble virtues like the sun.

    Foot Notes

    (नार्मिणीम् ) नर्माणि, क्रीड़ा विलासा विद्यन्ते येषां तेषाम् इमाम् - Full of the means of all legitimate enjoyments-joyful. (नभन्यः) नभसि भवो नभन्यो वायुः – etheral wind. (शतात्मा) शतेष्वसंख्यातेषु पदार्थेषु आत्मा विज्ञानं यस्य - Possessing the knowledge of innumerable objects.

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