ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 149/ मन्त्र 4
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒भि द्वि॒जन्मा॒ त्री रो॑च॒नानि॒ विश्वा॒ रजां॑सि शुशुचा॒नो अ॑स्थात्। होता॒ यजि॑ष्ठो अ॒पां स॒धस्थे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । द्वि॒ऽजन्मा॑ । त्री । रो॒च॒नानि॑ । विश्वा॑ । रजां॑सि । शु॒शु॒चा॒नः । अ॒स्था॒त् । होता॑ । यजि॑ष्ठः । अ॒पाम् । स॒धऽस्थे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्विजन्मा त्री रोचनानि विश्वा रजांसि शुशुचानो अस्थात्। होता यजिष्ठो अपां सधस्थे ॥
स्वर रहित पद पाठअभि। द्विऽजन्मा। त्री। रोचनानि। विश्वा। रजांसि। शुशुचानः। अस्थात्। होता। यजिष्ठः। अपाम्। सधऽस्थे ॥ १.१४९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 149; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् तथा द्विजन्मा होता यजिष्ठोऽग्निरपां सधस्थे त्री रोचनानि विश्वा रजांसि शुशुचानः सन्नभ्यस्थात्तथा त्वं भव ॥ ४ ॥
पदार्थः
(अभि) आभिमुख्ये (द्विजन्मा) द्वाभ्यामाकाशवायुभ्यां जन्म प्रादुर्भावो यस्य (त्री) त्रीणि (रोचनानि) सूर्यविद्युद्भूमिसम्बन्धीनि तेजांसि (विश्वा) सर्वाणि (रजांसि) लोकान् (शुशुचानः) प्रकाशयन् (अस्थात्) तिष्ठति (होता) आकर्षणेनादाता (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा सङ्गन्ता (अपाम्) जलानाम् (सधस्थे) सहस्थाने ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्याधर्म्ये विद्वत्सङ्गप्रकाशिते स्थानेऽनुतिष्ठन्ति ते सर्वान् शुभगुणकर्मस्वभावानादातुमर्हन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वन् ! जैसे (द्विजन्मा) दो अर्थात् आकाश और वायु से प्रसिद्ध जिसका जन्म ऐसा (होता) आकर्षण शक्ति से पदार्थों को ग्रहण करने और (यजिष्ठः) अतिशय करके सङ्गत होनेवाला अग्नि (अपाम्) जलों के (सधस्थे) साथ के स्थान में (त्री) तीन (रोचनानि) अर्थात् सूर्य, बिजुली और भूमि के प्रकाशों को और (विश्वा) समस्त (रजांसि) लोकों को (शुशुचानः) प्रकाशित करता हुआ (अभ्यस्थात्) सब ओर से स्थित हो रहा है, वैसे तुम होओ ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्या और धर्मसंयुक्त व्यवहार में विद्वानों के सङ्ग से प्रकाशित हुए स्थान के निमित्त अनुष्ठान करते हैं, वे समस्त अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों के ग्रहण करने के योग्य होते हैं ॥ ४ ॥
विषय
ज्ञान व श्रद्धा के समन्वय से प्रभु-दर्शन
पदार्थ
१. वे प्रभु (द्विजन्मा) = प्रभु-दर्शन दो से होता है। प्रभु का दर्शन न केवल ज्ञान से होता है और न केवल श्रद्धा से ज्ञान और श्रद्धा इन दोनों का समन्वय ही प्रभु के दर्शन का साधन बनता है। वे प्रभु (त्रिरोचनानि) = तीन ज्योतियों को–'अग्नि, विद्युत् व सूर्य' इन देवों को - इन देवों को ही नहीं (विश्वा रजांसि) = पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यौ- इन सब लोकों को (अभिशुशुचान:) = सब ओर से खूब ही दीप्त करते हुए (अस्थात्) = अधिष्ठातृरूपेण विद्यमान हैं। अग्नि में वे तेज प्रभु ही तो हैं, चन्द्र और सूर्य की प्रभा भी तो वे प्रभु ही हैं, विद्युत् को द्युति उस प्रभु से ही प्राप्त कराई जा रही है। उसकी दीप्ति से ही सब दीप्त हो रहे हैं । २. (होता) = वे प्रभु ही सब पदार्थों के देनेवाले हैं और (अपाम्) = प्रजाओं के (सधस्थे) = मिलकर बैठने के स्थान 'हृदय' में [हृदय में परमात्मा व जीवात्मा दोनों मित्रों की सहस्थिति है], (यजिष्ठः) = वे प्रभु सर्वाधिक पूज्य हैं और संगतिकरण=योग्य हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-दर्शन ज्ञान व श्रद्धा के समन्वय से होता है। वे प्रभु सबको दीप्त करते हैं, सब कुछ देनेवाले हैं। उस प्रभु का उपासन हृदय में करना चाहिए, क्योंकि हृदय में ही जीव व प्रभु की सह स्थिति है। यहीं उस प्रभु से उपासक का मेल होता है।
विषय
द्विजन्मा अग्निवत् द्विजन्मा विद्वान् का वर्णन ।
भावार्थ
( द्विजन्मा ) जिस प्रकार दो अरणियों में से उत्पन्न अग्नि ( शुशुचान: त्री रोचनानि अस्थात् ) तेज से चमकता हुआ चमकने वाले तत्व अग्नि, विद्युत्, सूर्य तीनों में स्थित है और वही ( विश्वा रजांसि ) समस्त लोकों को प्रकाशित करता है वह ( अपां सधस्थे होता ) जलों के साथ मिल कर सबको अपने में घोलने में समर्थ और ( यजिष्ठः ) सबको मिलाने या शक्ति देने में समर्थ होता है उसी प्रकार विद्वान् पुरुष ( द्विजन्मा ) माता पिता या पिता और गुरु दोनों से जन्म पाकर और दीक्षित होकर स्वयं ( शुशुचानः ) अति तेजस्वी होकर शुद्ध पवित्र होकर ( त्री रोचनानि ) तीनों उत्तम वर्णों और शेष तीनों आश्रमों को और ( विश्वा रजांसि ) समस्त राजस भोगों और ऐश्वर्यों को ( अभि अस्थात् ) अपने वश करे । वह ही ( अपां सधस्थे ) आप्त पुरुषों के एकत्र होकर बैठने के सभा भवन में ( होता ) सबको अधिकार देने और सबको स्वीकारने वाला मुख्य और ( यजिष्ठः ) सबको संगत करने और सबको भृति आदि देने हारों मे सबसे मुख्य होकर विराजे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ भुरिगनुष्टुप् । २, ४ निचृदनुष्टुप् । ५ विरानुष्टुप् । ३ उष्णिक् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वानांच्या संगतीने विद्या व धर्मयुक्त व्यवहारात अग्नी व जलयुक्त स्थानी अनुष्ठान करतात ते संपूर्ण चांगले गुणकर्मस्वभाव ग्रहण करतात.
इंग्लिश (2)
Meaning
Twice born and bom of two, akasha and vayu, manifesting in universal nature and in every distinct form of nature, illuminating three lights, fire of the earth, lightning of the skies and lights of heaven, vitalising all the worlds of the universe, Agni abides all round everywhere. Worthiest universal yajaka, holding the worlds unto itself, it abides coexistent with the universal liquid energy of the cosmos.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The performers of good deeds receive noble virtues.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Agni born of the sky and the wind, illuminating the three splendors of the sun, the lightning and the earth and shining over all the spheres (in the form of the fire on earth, as lightning in the firmament and sun in the sky) is attracter of various objects and the chief cause of their combination. It is present at the place where the waters are collected.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who perform noble deeds of the diffusion of knowledge and righteousness, in a place illuminated by the association of the enlightened persons can accept all good attributes, actions and temperaments.
Foot Notes
(द्विजन्मा) द्वाभ्याम् आकाशवायुभ्यां जन्म प्रादुर्भावो यस्य - Born of the sky and the wind. (होता) आकर्षणेनदाता = Attracter of various objects.
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