ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 158/ मन्त्र 6
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निच्रृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
दी॒र्घत॑मा मामते॒यो जु॑जु॒र्वान्द॑श॒मे यु॒गे। अ॒पामर्थं॑ य॒तीनां॑ ब्र॒ह्मा भ॑वति॒ सार॑थिः ॥
स्वर सहित पद पाठदी॒र्घऽत॑माः । मा॒म॒ते॒यः । जु॒जु॒र्वान् । द॒श॒मे । यु॒गे । अ॒पाम् । अर्थ॑म् । य॒तीना॑म् । ब्र॒ह्मा । भ॒व॒ति॒ । सार॑थिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे। अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः ॥
स्वर रहित पद पाठदीर्घऽतमाः। मामतेयः। जुजुर्वान्। दशमे। युगे। अपाम्। अर्थम्। यतीनाम्। ब्रह्मा। भवति। सारथिः ॥ १.१५८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 158; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो दीर्घतमा मामतेयो दशमे युगे जुजुर्वान् जायते। यश्च सारथिरिवाऽपां यतीनामर्थमाप्नोति स ब्रह्मा भवति ॥ ६ ॥
पदार्थः
(दीर्घतमाः) दीर्घं तमो यस्मात् सः (मामतेयः) ममतायां कुशलः (जुजुर्वान्) रोगापन्नः (दशमे) दशानां पूर्णे (युगे) वर्षे (अपाम्) विद्याविज्ञानयोगव्यापिनाम् (अर्थम्) प्रयोजनम् (यतीनाम्) संन्यासिनाम् (ब्रह्मा) सकलवेदवित् (भवति) (सारथिः) रथप्राजकः ॥ ६ ॥
भावार्थः
येऽत्रात्यन्ताविद्यायुक्ता लोभातुरास्सन्ति ते सद्यो रुग्णा जायन्ते। ये पक्षपातरहितानां संन्यासिनां हर्षशोकनिन्दास्तुतिरहितं विज्ञानाऽऽनन्दमाप्नुवन्ति ते स्वयं दुःखपारगा भूत्वाऽन्यानपि दुःखसागरात् पारं नयन्ति ॥ ६ ॥।अस्मिन् सूक्ते शिष्यशासककर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्विज्ञेया ॥इति अष्टपञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तं प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (दीर्घतमाः) जिससे दीर्घ अन्धकार प्रकट होता वह (मामतेयः) ममता में कुशल जन (दशमे) दशमे (युगे) वर्ष में (जुजुर्वान्) रोगी हो जाता है जो (सारथिः) रथ हाँकनेवाले जन के समान (अपाम्) विद्या, विज्ञान और योगशास्त्र में व्याप्त (यतीनाम्) संन्यासियों के (अर्थम्) प्रयोजन को प्राप्त होता वह (ब्रह्मा) सकल वेदविद्या का जाननेवाला (भवति) होता है ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो इस संसार में अत्यन्त अविद्या अज्ञानयुक्त, लोभातुर हैं वे शीघ्र रोगी होते और जो पक्षपातरहित संन्यासियों के सकाश से हर्ष-शोक तथा निन्दा-स्तुति रहित, विज्ञान और आनन्द को प्राप्त होते हैं, वे आप दुःख के पारगामी होकर औरों को भी उसके पार करते हैं ॥ ६ ॥इस सूक्त में शिष्य और शिक्षा देनेवाले के काम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ अट्ठावनवाँ सूक्त और प्रथम वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
मामतेय Vs पुरुषार्थ साधक
पदार्थ
१. (मामतेयः) = ममता का पुत्र-संसार में विषयों की ममता में फँस जानेवाला व्यक्ति दी(र्घतमाः) = विस्तृत अन्धकारवाला होता है। इसका जीवन अन्धकारमय हो जाता है। यह (दशमे युगे) = [युग = a period of five years] = दसवें ही युग में अर्थात् पचास वर्ष की ही अवस्था में (जुजुर्वान्) = अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हो जाता है। २. इसके विपरीत विषयों में न फँसकर, इनका ठीक प्रयोग करनेवाली अतएव (अर्थं यतीनाम्) = धर्मार्थ-काम व मोक्ष - इन पुरुषार्थों की ओर चलनेवाली (अपाम्) = प्रजाओं का (ब्रह्मा) - वेदज्ञान का देनेवाला वह प्रभु (सारथिः भवति) = सारथि होता है । इनके रथ को प्रभु प्रेरित करते हैं, अतः विषय-गर्त में न गिरते हुए ये लक्ष्य स्थान पर पहुँचनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- संसार में मनुष्य ममता में फँसकर नष्ट हो जाता है। पुरुषार्थ-प्राप्ति के लिए चलता हुआ प्रभु से प्रेरित होकर लक्ष्य पर पहुँचता है।
विषय
मामतेय दीर्घतमा का रहस्य ।
भावार्थ
जो ( दीर्घतमाः ) अति विस्तृत अज्ञान और शोकादि में व्याकुल और ( मामतेयः ) अति ममताशील, लोभी होता है वह राजा ( दशमे युगे ) दसवें वर्ष ( जुजुर्वान् ) जीर्ण होकर नाश को प्राप्त हो जाता है । और ( यतीनां ) नियम में सुप्रबद्ध, सुसंगत जितेन्द्रिय ( अपाम् ) आप्तजनों, विद्वानों और प्रजाओं के ( अर्थं ) ऐश्वर्य और प्रयोजन को प्राप्त करता है यह उनका ( ब्रह्मा ) बड़ा विद्वान् और महान् स्वामी और ( सारथिः ) रथ के संचालक के समान उनको सन्मार्ग से ले जाने हारा होता है। अथवा—शिष्य जो अति अज्ञानी माता पिता से अति ममता में बद्ध हो यह भी ( दशमे युगे ) दश वर्ष या ५० वर्ष तक आप्त जितेन्द्रिय गुरुजनों के सत्यार्थ का ( जुजुर्वान् ) उपदेश प्राप्त करके ( ब्रह्मा ) ब्रह्मचर्यवान्, विद्वान् वेदवक्ता और सार ज्ञान का ग्रहण करने वाला हो । या रथवान् आत्मा के ज्ञान से युक्त हो जाता है । ( दशमे युगे ) दशवें वर्ष, अथवा युग = ५ वर्ष । ( दशमे युगे ) पचासवें वर्ष । अध्यात्म में—ज्ञानरहित जीव दीर्घतमा मामतेय है। ( दशमे ) सर्व दुःखों के नाशक शान्तिदायक याग में अपने को जीर्ण करता हुआ, आप्त जितेन्द्रियों के परम उद्देश्य को प्राप्त करता, स्त्रयं ब्रह्म में मग्न होकर रथवान् = रसवान् परमात्मा के साथ ही विचरता है । इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पङ्क्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे या जगात अत्यंत अविद्यायुक्त, अज्ञानयुक्त लोभातुर असतात, ते तात्काळ रोगी होतात व जे भेदभावरहित संन्याशाच्या सान्निध्याने हर्ष, शोक व निन्दास्तुतिरहित विज्ञान व आनंद प्राप्त करतात ते स्वतः दुःखाच्या पलीकडे जातात व इतरांनाही पार करवितात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The person lost in darkness of the deep, having fallen a victim to blind attachment, grows old and decrepit in ten years. The one dedicated to sages in pursuit of divine knowledge, yajnic action and meditative prayer becomes a Brahma, scholar of the Veda, and a master of the chariot of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The greedy are destined to unhappiness.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The man who has too much attachment and selfishness remains in long darkness. He becomes ill now and then. One who fulfils the objects of the Sanyasis, one who pervades in the wisdom, special knowledge and Yoga or are experts in these things, he becomes like a guide or charioteer, the Brahma or the knower of all the Vedas.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who are full of ignorance and greed suffer from various diseases. Those who acquire the knowledge and bliss of the Sanyasis who are free from prejudice and partiality and whose mind is above exultation and grief, praise and censure, they become free from all miseries and they enable others to overcome them.
Foot Notes
(जुजुर्वान्) रोगापन्न: = III. (आपाम् ) विद्याविज्ञानयोगव्यापिनाम् = of those who pervade in wisdom, special knowledge and Yoga. (यतीनाम्) संन्यासिनाम् = Of the Sanyasis. (ब्रह्मा) सकलवेदवित् = Knower of = all the Vedas.
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