ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 13
को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। मन्मा॑नि चित्रा अपिवा॒तय॑न्त ए॒षां भू॑त॒ नवे॑दा म ऋ॒ताना॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठकः । नु । अत्र॑ । म॒रु॒तः॒ । म॒म॒हे॒ । वः॒ । प्र । या॒त॒न॒ । सखी॒न् । अच्छ॑ । स॒खा॒यः॒ । मन्मा॑नि । चि॒त्राः॒ । अ॒पि॒ऽवा॒तय॑न्तः । ए॒षाम् । भू॒त॒ । नवे॑दाः । मे॒ । ऋ॒ताना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
को न्वत्र मरुतो मामहे व: प्र यातन सखीँरच्छा सखायः। मन्मानि चित्रा अपिवातयन्त एषां भूत नवेदा म ऋतानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठकः। नु। अत्र। मरुतः। ममहे। वः। प्र। यातन। सखीन्। अच्छ। सखायः। मन्मानि। चित्राः। अपिऽवातयन्तः। एषाम्। भूत। नवेदाः। मे। ऋतानाम् ॥ १.१६५.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 13
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मरुतोऽत्र वः को नु मामहे। हे सखायो यूयं सखीनच्छ प्रयातन। हे चित्रा मन्मान्यपिवातयन्तो यूयं मे ऋतानामेषां नवेदा भूत ॥ १३ ॥
पदार्थः
(कः) (नु) सद्यः (अत्र) (मरुतः) (मामहे) महयति। अत्र मह पूजायामित्यस्मात् लटि बहुलं छन्दसीति श्लुर्विकरणो व्यत्ययेनात्मनेपदं तुजादित्वाद्दीर्घः। (वः) युष्मान् (प्र) (यातन) प्राप्नुवत (सखीन्) सुहृदः (अच्छ) (सखायः) (मन्मानि) विज्ञानानि (चित्राः) अद्भुताः (अपिवातयन्तः) शीघ्रं गमयन्तः (एषाम्) (भूत) भवत (नवेदाः) न विद्यन्ते दुःखानि येषु (मे) मम (ऋतानाम्) सत्यानाम् ॥ १३ ॥
भावार्थः
मनुष्याः सर्वेषु सुहृदो भूत्वा विद्यां प्रापय्य सर्वान् धर्म्यपुरुषार्थे संयोजयन्तु। यत एते सर्वत्र सत्कृताः स्युः सत्याऽसत्ये विज्ञायान्यानुपदिशेयुः ॥ १३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मरुतः) प्राणवत्प्रिय विद्वानो ! (अत्र) इस स्थान में (वः) तुम लोगों को (कः) कौन (नु) शीघ्र (मामहे) सत्कारयुक्त करता है। हे (सखायः) मित्र विद्वानो ! तुम (सखीन्) अपने मित्रों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, यातन) प्राप्त होओ। हे (चित्राः) अद्भुत कर्म करनेवाले विद्वानो ! (मन्मानि) विज्ञानों को (अपिवातयन्तः) शीघ्र पहुँचाते हुए तुम (मे) मेरे (एषाम्) इन (ऋतानाम्) सत्य व्यवहारों के बीच (नवेदाः) नवेद अर्थात् जिनमें दुःख नहीं है ऐसे (भूत) होओ ॥ १३ ॥
भावार्थ
मनुष्य सबमें मित्र हो और उनको विद्या पहुँचाकर सबको धर्मयुक्त पुरुषार्थ में संयुक्त करें। जिससे ये सर्वत्र सत्कारयुक्त हों और आप सत्य-असत्य जान औरों को उपदेश दें ॥ १३ ॥
विषय
स्तवन व ज्ञान
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुषो! (नु) = निश्चय से (अत्र) = यहाँ (कः) = वह आनन्दमय प्रभु (वः) = तुम्हें (मामहे) = महत्त्व प्राप्त कराता है। तुम संसार में (सखायः) = मित्र बनकर (सखीन् अच्छ) = समान ख्यान व ज्ञानवाले व्यक्तियों के प्रति (प्र यातन) = जानेवाले होओ। परस्पर ज्ञान की चर्चा करते हुए अपने जीवनों को अधिकाधिक पवित्र बनानेवाले बनो । २. (चित्रा:) = [चित्र] ज्ञान में गति करनेवाले तुम (मन्मानि) = स्तोत्रों [Hymns] को (अपिवातयन्तः) = प्राप्त करते हुए, अर्थात् स्तुति करते हुए (मे) = मेरे (एषाम्) = इन (ऋतानाम्) = सत्य ज्ञानों के (नवेदाः) = जाननेवाले [ज्ञातार:] (भूत) = होओ। ३. यहाँ मरुतों को प्रभु का उपदेश यह है कि वे परस्पर मिलकर ज्ञान-चर्चा करनेवाले बनें । प्रभुस्तवन करते हुए प्रभु से दिये गये सत्य ज्ञानों को पूर्णतया जाननेवाले हों। यहाँ 'भूत नवेदाः' के स्थान में 'भूतन वेदाः' यह पदपाठ अधिक संगत हो सकता है। प्रस्तुत पदपाठ 4 में भी 'नवेदाः' का अर्थ 'न न जाननेवाले' अर्थात् पूर्णतया जाननेवाले ही करना उचित है। ('न अवेदा:) = नवेदाः' में पररूप समझना चाहिए।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना करते हुए हम खूब प्रभुस्तवन करें और सदा ज्ञान में ही विचरण करने का प्रयत्न करें ।
विषय
उनका योग्य परस्पर आदर ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) विद्वान् लोगो ! ( नु ) देखो ( अत्र ) यहां ( वः ) आप लोगों का ( कः ) कौन ( मामहे ) आदर सत्कार करता है । हे ( सखायः ) मित्रो ! ( सखीन् अच्छ प्र यातन ) अपने समान स्नेही मित्रों को ही प्राप्त होवो । हे ( चित्राः ) अद्भुत २ नाना कर्म करने हारे ! विद्वानों ! आप लोग ( मन्मानि ) नाना मनन योग्य विद्वानों और धनों को ( अपि-वातयन्तः ) प्राप्त कराते हुए ( मे ) मेरे ( एषां ) इन ( ऋतानां ) समस्त ऐश्वर्यों और सत्य ज्ञानों के ( नवेदाः भूत ) शेष न रखकर पूर्ण रीति से प्राप्त करने वाले और ज्ञाता होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणूस सर्वांचा मित्र असावा. त्यांना विद्या द्यावी व धर्मयुक्त पुरुषार्थामध्ये संयुक्त करावे. ज्यामुळे त्यांचा सर्वत्र सत्कार व्हावा व स्वतः सत्य -असत्य जाणून इतरांना उपदेश करावा. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Maruts, pioneers of knowledge and science, who offers you tributes of praise and appreciation here now? Friends, go forward to those friends who love and honour you. Heroes of wonderful action, moving on to the completion of your programmes of knowledge, be aware of my projects of truth and natural laws and waters of space to fight out want and suffering.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The previous theme is further emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons, you are dear to me like Pranas-my own life. Who is there in the universe who does not worship or honor you? In fact, you approach your friends like true friends. Giving the knowledge of wonderful sciences, You grasp my true words and free yourself from all miseries.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned men should be friendly to all Giving them knowledge, they should prompt them to engage themselves in righteous activities, so that they may be respected everywhere. They should know thoroughly what is true and what is untrue and then preach it to others.
Foot Notes
(मामहे) महयति = Worships or honors. ( अपि वातयन्तः) शीघ्रम् गमयन्तः = Giving knowledge soon (नवेदाः) न विद्यन्ते दुःखानि येषु – Free from misery. (मन्मानि) विज्ञानानि = Sciences.
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