ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 4
ब्रह्मा॑णि मे म॒तय॒: शं सु॒तास॒: शुष्म॑ इयर्ति॒ प्रभृ॑तो मे॒ अद्रि॑:। आ शा॑सते॒ प्रति॑ हर्यन्त्यु॒क्थेमा हरी॑ वहत॒स्ता नो॒ अच्छ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्मा॑णि । मे॒ । म॒तयः॑ । शम् । सु॒तासः॑ । शुष्मः॑ । इ॒य॒र्ति॒ । प्रऽभृ॑तः । मे॒ । अद्रिः॑ । आ । शा॒स॒ते॒ । प्रति॑ । ह॒र्य॒न्ति॒ । उ॒क्था । इ॒मा । हरी॒ इति॑ । व॒ह॒तः॒ । ता । नः॒ । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्माणि मे मतय: शं सुतास: शुष्म इयर्ति प्रभृतो मे अद्रि:। आ शासते प्रति हर्यन्त्युक्थेमा हरी वहतस्ता नो अच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्माणि। मे। मतयः। शम्। सुतासः। शुष्मः। इयर्ति। प्रऽभृतः। मे। अद्रिः। आ। शासते। प्रति। हर्यन्ति। उक्था। इमा। हरी इति। वहतः। ता। नः। अच्छ ॥ १.१६५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा प्रभृतः शुष्मोऽद्रिर्मेघ इव मे उपदेशः सर्वानियर्त्ति। तथा सुतासो मतयो मे ब्रह्माणि शं चाशासते। इमोक्था प्रति हर्यन्ति यथा ता हरी नोऽस्मानच्छ वहतस्तथा यूयं भवत ॥ ४ ॥
पदार्थः
(ब्रह्माणि) धनान्यन्नानि वा (मे) मम (मतयः) मननशीला मनुष्याः (शम्) सुखम् (सुतासः) प्राप्ताः (शुष्मः) बलवान् (इयर्त्ति) प्राप्नोति (प्रभृतः) (मे) मम (अद्रिः) मेघः (आ) (शासते) इच्छन्ति (प्रति) (हर्यन्ति) कामयन्ते (उक्था) वक्तुं योग्यानि (इमा) इमानि (हरी) धारणकर्षणगुणौ (वहतः) प्राप्नुतः (ता) तौ (नः) अस्मान् (अच्छ) सम्यक् ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य उदारास्ते मेघवत् सर्वेभ्यः सुखानि वर्षन्ति सर्वेभ्यो विद्यादानं कामयन्ते। यथाऽऽत्मसुखमिच्छन्ति तथा परेषां सुखानि कर्त्तुं दुःखानि विनाशयितुं सर्व इच्छन्तु ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (प्रभृतः) शास्त्रविज्ञान से भरा हुआ (शुष्मः) बलवान् (अद्रिः) मेघ के समान (मे) मेरा उपदेश सबको (इयर्त्ति) प्राप्त होता, वा जैसे (सुतासः) प्राप्त हुए (मतयः) मननशील मनुष्य (मे) मेरे (ब्रह्माणि) धनों वा अन्नों को और (शम्) सुख को (आशासते) चाहते हैं, वा (इमा) इन (उक्था) कहने के योग्य पदार्थों की (प्रति, हर्यन्ति) प्रीति से कामना करते हैं, वा जैसे (ता) वे (हरी) धारण-आकर्षण गुण (नः) हम लोगों को (अच्छ) अच्छा (वहतः) प्राप्त होते हैं, वैसे तुम सब होओ ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो उदार हैं वे मेघ के समान सबके लिये समान सुखों को वर्षाते हैं, सबके लिये विद्यादान की कामना करते हैं। जैसे अपने को सुख की इच्छा करते हैं वैसे औरों को सुख करने और दुःखों का विनाश करने को सब चाहैं ॥ ४ ॥
विषय
ज्ञान, बुद्धि व सोम
पदार्थ
१. प्रभु प्राणसाधकों से कहते हैं कि (मे) = मेरे (ब्रह्माणि) = ये वेदरूप ज्ञान, (मतयः) = मुझसे दी गई बुद्धियाँ, (सुतासः) = मेरी व्यवस्था से उत्पन्न किये गये सोमकण- ये सब (शम्) = शान्ति देनेवाले हैं। 'ज्ञान, बुद्धि व शक्ति' मनुष्य के जीवन को सुन्दर बनानेवाले हैं। सोम के रक्षण से (शुष्मः) = शत्रुशोषक बल इयर्ति प्राप्त होता है । (मे) = मेरा यह (अद्रिः) = मेघ (प्रभृतः) = [प्रकृष्टं भृतं येन] प्रकृष्ट भरणवाला है। मेघजल वस्तुतः नीरोगता व दीर्घायुष्य प्राप्त करानेवाला है, मेघजल शरीर में सौम्य शक्ति को उत्पन्न करता है। २. (आशासते) = सब मेरी ही प्रार्थना करते हैं, (उक्था) = सब स्तोत्र (प्रतिहर्यन्ति) = मेरी ही कामना करते हैं- सब स्तोत्र मुझे ही प्राप्त होते हैं । (ता) = वे (इमा) = ये हरी ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व (नः) = हमारी अच्छ ओर ही (वहतः) = प्राप्त कराते हैं। ये इन्द्रियाश्व इसीलिए दिये गये हैं कि इनके द्वारा हम जीवन यात्रा में उन्नति करते हुए प्रभु को प्राप्त हों ।
भावार्थ
भावार्थ – 'ज्ञान, बुद्धि व सोम' प्रभु द्वारा प्राप्त कराये गये हैं ताकि हम जीवन को शान्त बना सकें और अन्ततः प्रभु को प्राप्त होनेवाले हों ।
विषय
प्रभु के वा गुरु के प्रति शान्ति-उपदेश ।
भावार्थ
हे विद्वान् लोगो ! ( मे शुष्मः अद्रिः ) मेरा बलवान् व मेघ के समान ज्ञान जलों की वर्षा करने वाला उपदेश ( शं इयर्त्ति) शान्ति को प्राप्त कराता है। और ( मतयः ) मननशील ( सुतासः ) पुत्र और शिष्य गण ( मे ) मेरे ( ब्रह्माणि ) ब्रह्म अर्थात् वेद ज्ञानों और ऐश्वर्यों को, पिता के धनों के समान ( आशासते ) चाहते हैं ( इमा उक्था ) इन उत्तम वचनों को सदा ( प्रति हर्यन्ति ) ले लेना चाहते हैं । ( ता ) उन सबको ( हरी ) ज्ञानवान् और कर्मनिष्ठ दोनों प्रकार के गुरु शिष्य जन आप लोग ज्ञान और धनैश्वर्य के प्राप्त करने योग्य होकर रथ को दो अश्वों के समान ( नः अच्छ वहतः ) हमें अच्छी प्रकार प्राप्त कराओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे उदार आहेत ते मेघाप्रमाणे सगळ्यांच्या सुखासाठी वृष्टी करतात, सर्वांसाठी विद्यादानाची कामना करतात. जशी आपल्या सुखाची इच्छा करतात तशी इतरांच्या सुखाची कामना करावी व दुःखाचा विनाश करण्याची इच्छा बाळगावी. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the wealth and power, the people and ideas of the nation, and the noble achievements of peace and joy be for our good. The strength, the cloud and the thunderbolt deployed go forward for our good and peace. The songs of praise arise and celebrate us. May the horses of Indra, the energies of sunbeams and electrical energy, carry us onward.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The liberal persons are praised.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! my sermon full of shastric knowledge and powerful benefits all like the cloud. Similarly thoughtful persons desire wealth, food and happiness and also sweet words from me. The way powers of upholding and attracting carry on us well, you should also be like that.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who are generous, showerers of happiness on all like the clouds desire to give knowledge to all. As men desire their own happiness, likewise they should also aspire to make others happy by mitigating their sufferings.
Foot Notes
(मतयः) मननशीला: मनुष्याः = Thoughtful persons. (हरी) धारणाकर्षणगुणौ = Merits or powers of upholding and attracting.
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