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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    क्व१॒॑ स्या वो॑ मरुतः स्व॒धासी॒द्यन्मामेकं॑ स॒मध॑त्ताहि॒हत्ये॑। अ॒हं ह्यु१॒॑ग्रस्त॑वि॒षस्तुवि॑ष्मा॒न्विश्व॑स्य॒ शत्रो॒रन॑मं वध॒स्नैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्व॑ । स्या । वः॒ । म॒रु॒तः॒ । स्व॒धा । आ॒सी॒त् । यत् । माम् । एक॑म् । स॒म्ऽअध॑त्त । अ॒हि॒ऽहत्ये॑ । अ॒हम् । हि । उ॒ग्रः । त॒वि॒षः । तुवि॑ष्मान् । विश्व॑स्य । शत्रोः॑ । अन॑मम् । व॒ध॒ऽस्नैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्व१ स्या वो मरुतः स्वधासीद्यन्मामेकं समधत्ताहिहत्ये। अहं ह्यु१ग्रस्तविषस्तुविष्मान्विश्वस्य शत्रोरनमं वधस्नैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्व। स्या। वः। मरुतः। स्वधा। आसीत्। यत्। माम्। एकम्। सम्ऽअधत्त। अहिऽहत्ये। अहम्। हि। उग्रः। तविषः। तुविष्मान्। विश्वस्य। शत्रोः। अनमम्। वधऽस्नैः ॥ १.१६५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मरुतो यद्यतो मामेकमहिहत्ये समधत्त स्या वः स्वधा क्वाऽऽसीत्। यथा तुविष्मानुग्रोऽहं तविषो विश्वस्य शत्रोर्वधस्नैरनमँस्तं हि मां यूयं सुखे धरत ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (क्व) कुत्र (स्या) असौ (वः) युष्माकम् (मरुतः) प्राणा इव वर्त्तमानाः (स्वधा) अन्नमुदकं वा (आसीत्) अस्ति (यत्) (माम्) (एकम्) (समधत्त) सम्यग् धरतः (अहिहत्ये) मेघहनने (अहम्) (हि) खलु (उग्रः) तीव्रस्वभावः (तविषः) बलवतः (तुविष्मान्) बलवान्। तुविरिति बलना०। निघं० ३। १। (विश्वस्य) समग्रस्य (शत्रोः) (अनमम्) नमामि (वधस्नैः) यानि वधेन स्नापयन्ति शस्त्राणि तैः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या विद्या धृत्वा सूर्यो मेघमिव शत्रुबलं निवारयेयुस्ते सर्वे विद्वांसं प्रति पृच्छेयुर्या सर्वधारिका शक्तिर्वर्त्तते सा क्वाऽस्तीति सर्वत्र स्थितेत्युत्तरम् ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) प्राण के समान वर्त्तमान विद्वानो ! (यत्) जिससे (माम्) मुझ (एकम्) एक को (अहिहत्ये) मेघ के वर्षण होने में (समधत्त) अच्छे प्रकार धारण करो (स्या) वह (वः) आपका (स्वधा) अन्न और जल (क्व) कहाँ (आसीत्) है वैसे (तुविष्मान्) बलवान् (उग्रः) तीव्र स्वभाववाला (अहम्) मैं जो (तविषः) बलवान् (विश्वस्य) समग्र (शत्रोः) शत्रु के (वधस्नैः) वध से नहानेवाले शस्त्र उनसे साथ (अनमम्) नमता हूँ (हि) उसी मुझको तुम सुख में धारण करो ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्याओं को धारण कर सूर्य जैसे मेघ को वैसे शत्रु बल को निवृत्त करें, वे सब विद्वान् के प्रति पूछें कि जो सबको धारण करनेवाली शक्ति है, वह कहाँ है ? सर्वत्र स्थित है, यह उत्तर है ॥ ६ ॥

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    विषय

    प्रभु अपनी सहायता करनेवालों का रक्षक है

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र की समाप्ति पर प्रार्थना थी कि 'हमारे आत्मतत्त्व के धारण के अनुसार आप हमारे होइए।' प्रभु इन प्रार्थना करनेवाले मरुतों से कहते हैं कि हे (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुषो ! (वः) = आपकी (स्या) = वह (स्व-धा) = आत्मतत्त्व की धारणा (क्व आसीत्) = कहाँ गई? [कहाँ है] (यत्) = जो तुम (मां एकम्) = मुझ अकेले को ही (अहि-हत्ये) = इस वासनारूप वृत्र के मारने में (समधत्त) = स्थापित करते हो। तुम भी तो वासना को जीतने का प्रयत्न करो । हाँ, तुम प्रयत्न करोगे तो मैं तुम्हारा सहायक बनूँगा ही। २. (अहम्) = मैं हि निश्चय से (उग्रः) = तेजस्वी व शत्रुभयंकर हूँ, (तविष:) = बलवान् हूँ (तुविष्मान्) = महत्त्व से युक्त हूँ । (विश्वस्य शत्रोः) = सब शत्रुओं का (वधस्नैः) = [वध स्ना-शौचेः] वध द्वारा शोधनों से (अनमम्) = [अन्तर्भावितण्यर्थः] वश में करनेवाला हूँ [अनमयम्] मैं तुम्हारे इन वासनारूप शत्रुओं को अवश्य विनष्ट करूँगा, परन्तु तुम्हें भी तो आत्मतत्त्व के धारण का प्रयत्न करना चाहिए। तुम्हारी स्वधा के अनुपात में ही मेरी सहायता तुम्हें प्राप्त होगी ।

    भावार्थ

    भावार्थ प्राप्त होता है। – वासना- विनाश के लिए प्रयत्न करनेवालों ही को प्रभु का साहाय्य अवश्य प्राप्त होता है।

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    विषय

    विद्युत्वत् प्रबल नायक ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( मरुतां स्वधा क्व ) वायुओं के बल से जल नहीं उत्पन्न होता और ( उग्रः तुविष्मान् वधस्नै नमयति ) विद्युत् ही बलवान् होकर अपने प्रहारों से जल को नीचे गिराता है। उसी प्रकार हे ( मरुतः ) विद्वान् और वीर पुरुषो ! हे सैनिको ! ( स्या ) वह ( स्वधा ) अन्न आदि राष्ट्र को धारण पोषण करने वाला बल ( वः क्व आसीत् ) आप लोगों का कहां विद्यमान रहता है ? क्या आप लोगों में रहता है या मुझ सेनापति में ? सुनो ( अहम् ) मैं ( हि ) निश्चय से ( उग्रः ) तीक्ष्णस्वभाव, शत्रु को उद्विग्न करने वाला, सदा शस्त्र बल में विद्युद्-वत् रहने वाला और ( तुविष्मान् ) बलवान् होकर (वधस्नैः) शस्त्रों के प्रहारों से ( विश्वस्य शत्रोः ) समस्त शत्रु को ( अनमम् ) नमा लेता हूं, उनको दबा देता हूं, उनको सिर नहीं उठाने देता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य जसा मेघाला तसे जी माणसे विद्या धारण करून शत्रू बल नष्ट करतात त्यांनी सर्व विद्वानांना विचारावे की सर्वांना धारण करणारी शक्ती कुठे आहे? सर्वत्र स्थित आहे हे त्याचे उत्तर आहे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, tempestuous powers of knowledge, speed and energy, where is that essential strength and energy of yours which you placed in me to break the clouds of rain showers by myself alone? Bright, blazing and awful of power, I bow in homage to you with all my fatal weapons of defence against the enemies of the world and humanity. (The strength and energy is everywhere in nature, in fire, water and electric and magnetic force, and in the sunbeams. Let us exploit these with knowledge and scientific technique.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Á man should seek the fountain-head of Supreme Energy.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O powerful scholars! you are dear to me like my pranas (life). Tell me the source of your power when you supported me (the king) in the act of the annihilation of the serpent-like enemies? I am indeed fierce, strong and mighty and make my enemies bow down with death-dealing arms.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who destroy the strength of the enemies by upholding Dharma (righteousness) like the sun dispersing all the clouds, let them seek knowledge from the learned persons. The query is where resides the upholding power? They should answer that the Supreme upholding power is everywhere.

    Foot Notes

    (मरुतः ) प्राणइव वर्तमाना: = Who are dear like one's own Pranas or vital breaths.

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