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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 172/ मन्त्र 3
तृ॒ण॒स्क॒न्दस्य॒ नु विश॒: परि॑ वृङ्क्त सुदानवः। ऊ॒र्ध्वान्न॑: कर्त जी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतृ॒ण॒ऽस्क॒न्दस्य॑ । नु । विशः॑ । परि॑ । वृ॒ङ्क्त॒ । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ । ऊ॒र्ध्वान् । नः॒ । क॒र्त॒ । जी॒वसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तृणस्कन्दस्य नु विश: परि वृङ्क्त सुदानवः। ऊर्ध्वान्न: कर्त जीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठतृणऽस्कन्दस्य। नु। विशः। परि। वृङ्क्त। सुऽदानवः। ऊर्ध्वान्। नः। कर्त। जीवसे ॥ १.१७२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 172; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे सुदानवो यूयं तृणस्कन्दस्य विशो नु परि वृङ्क्त जीवसे नो ऊर्द्ध्वान् कर्त्त ॥ ३ ॥
पदार्थः
(तृणस्कन्दस्य) यस्तृणानि स्कन्दति गच्छति गमयति वा तस्य (नु) शीघ्रम् (विशः) प्रजाः (परि) सर्वतः (वृङ्क्त) त्यजत (सुदानवः) उत्तमदानाः (ऊर्द्ध्वान्) उत्कृष्टान् (नः) अस्मान् (कर्त्त) कुरुत (जीवसे) जीवितुम् ॥ ३ ॥
भावार्थः
यथा वायुः सर्वाः प्रजा रक्षति तथा सभेशो वर्त्तेत। यथा प्रजापीडा नश्येत् मनुष्या उत्कृष्टा दीर्घजीविनो जायेरन् तथा सर्वैरनुष्ठेयम् ॥ ३ ॥अत्र वायुवद्विद्वद्गुणप्रशंसनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति द्विसप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (सुदानवः) उत्तम दान देनेवाले ! तुम (तृणस्कन्दस्य) जो तृणों को प्राप्त अर्थात् तृणमात्र का लोभ करता वा दूसरों को उस लोभ पर पहुँचाता उसकी (विशः) प्रजा को (नु) शीघ्र (परि, वृङ्क्त) सब ओर से छोड़ो और (जीवसे) जीवने के अर्थ (नः) हम लोगों को (ऊर्द्ध्वान्) उत्कृष्ट (कर्त्त) करो ॥ ३ ॥
भावार्थ
जैसे वायु समस्त प्रजा की रक्षा करता वैसे सभापति वर्त्तें। जैसे प्रजाजनों की पीड़ा नष्ट हो मनुष्य उत्कृष्ट अति उत्तम बहुत जीवनेवाले उत्पन्न हों, वैसा कार्य्यारम्भ सबको करना चाहिये ॥ ३ ॥इस सूक्त में पवन के तुल्य विद्वानों के गुणों की प्रशंसा होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ बहत्तरवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
तृणस्कन्द का उत्कृष्ट जीवन
पदार्थ
१. जो व्यक्ति प्रभुदर्शन के कारण इन सांसारिक पदार्थों व भोगों को तृणतुल्य समझकर सब व्यवहार करता है वह 'तृणस्कन्द' कहलाता है [स्कन्द = to go, to move] । हे प्राणो ! (नु) = अब इस (तृणस्कन्दस्य) = तृणस्कन्द के (विश:) = शरीर में प्रविष्ट 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को (परिवृङ्क्त) = अशुभ गुणों से दूर करो। (सुदानव:) = आप अशुभ का खण्डन करनेवाले हैं । २. अशुभों का खण्डन करके (नः) = हमें जीवसे उत्कृष्ट जीवन की प्राप्ति के लिए (ऊर्ध्वान् कर्त) = ऊपर उठाइए। हम वासनाओं से ऊपर उठें जीवन के उत्कर्ष का यही तो मार्ग है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से जब प्रभुदर्शन होता है, तब मनुष्य संसार के पदार्थों को तुच्छ समझने लगता है। इसकी 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' सब पापों से दूर हो जाते हैं।
विषय
अत्याचारी राजा से रक्षा करने की प्रार्थना। पक्षान्तर में देहमय तृणस्कन्द का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( सुदानवः ) उत्तम दानशील पुरुषो ! आप लोग (तृणस्कन्दस्य) जो तृण के समान निर्बलों पर आक्रमण करने वाला अत्याचारी राजा है उसके ( विशः ) अधीन प्रजा को ( परिवृङ्क्त ) उससे बचाओ । ( नः ) हमारे ( जीवसे ) जीवन की रक्षा के लिये हमें ( ऊर्ध्वान् कर्त्त ) ऊंचा करो । ( २ ) अध्यात्म में—वायु से जिस प्रकार तृण हिलता है उसी प्रकार चलने वाला यह देह ‘तृण-स्कन्द’ है। उसके भीतर प्रविष्ट शक्तियां ये प्राणगण, रोग आदि से बचावें । और उनके दीर्घ जीवन के लिये उनको ( ऊर्ध्वान् ) ऊपर की ओर, उत्कृष्ट बलवान् बनावें । इति द्वादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १ विराड् गायत्री । २, ३ गायत्री ॥ तृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा वायू संपूर्ण प्रजेचे रक्षण करतो तसे सभापतीने वागावे. प्रजेचा त्रास नष्ट व्हावा व माणसे दीर्घजीवी व्हावीत असे अनुष्ठान सर्वांनी करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Maruts, generous powers of charity and valour, spare the and protect men of straw, take to the rural settlements and raise us all to the heights of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of noble persons are re-emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O liberal donor ! protect my people who are strong like the wind that moves the grass. Lift us up, so that we may live happily.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the air protects all people, so should be the President of the Assembly. All should behave in such a way, that the sufferings of the people may vanish and the people may live long.
Foot Notes
(तृणस्कन्दस्य ) य: तृणानि स्कन्दति गच्छति गमयति वा स वायुः । ततुयस्य = Of a person like the wind that moves the grass.
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