ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - ऋभवः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सं वो॒ मदा॑सो अग्म॒तेन्द्रे॑ण च म॒रुत्व॑ता। आ॒दि॒त्येभि॑श्च॒ राज॑भिः॥
स्वर सहित पद पाठसम् । वः॒ । मदा॑सः । अ॒ग्म॒त॒ । इन्द्रे॑ण । च॒ । म॒रुत्व॑ता । आ॒दि॒त्येभिः॑ । च॒ । राज॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं वो मदासो अग्मतेन्द्रेण च मरुत्वता। आदित्येभिश्च राजभिः॥
स्वर रहित पद पाठसम्। वः। मदासः। अग्मत। इन्द्रेण। च। मरुत्वता। आदित्येभिः। च। राजऽभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरिमे केन किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे मेधाविनो येन मरुत्वतेन्द्रेण राजभिरादित्येभिश्च सह मदसो वो युष्मानग्मत प्राप्नुवन्ति भवन्तश्च तैः श्रीमन्तो भवन्तु॥५॥
पदार्थः
(सम्) सम्यगर्थे (वः) युष्मान् मेधाविनः (मदासः) विद्यानन्दाः। आज्जसेरसुग् इत्यसुक्। (अग्मत) प्राप्नुवन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्। मन्त्रे घसह्वरणश० इति च्लेर्लुक्, गमहनजनखन० (अष्टा०६.४.९८) इत्युपधालोपः, समो गम्यृच्छिभ्याम् (अष्टा०१.३.२९) इत्यात्मनेपदं च। (इन्द्रेण) विद्युता (च) समुच्चये (मरुत्वता) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तेन। अत्र सम्बन्धे मतुप्। (आदित्येभिः) किरणैः सह। बहुलं छन्दसि इति भिसः स्थान ऐसभावः। (च) पुनरर्थे (राजभिः) राजयन्ते दीपयन्ते तैः॥५॥
भावार्थः
ये विद्वांसो यदा वायुविद्युद्विद्यामाश्रित्य सूर्य्यकिरणैराग्नेयास्त्रादीनि शस्त्राणि यानानि च निष्पादयन्ति तदा ते शत्रून् जित्वा राजानः सन्तः सुखिनो भवन्तीति॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर ये किससे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हे मेधावि विद्वानो ! तुम लोग जिन (मरुत्वता) जिसके सम्बन्धी पवन हैं, उस (इन्द्रेण) बिजुली वा (राजभिः) प्रकाशमान (आदित्येभिः) सूर्य्य की किरणों के साथ युक्त करते हो, इससे (मदासः) विद्या के आनन्द (वः) तुम लोगों को (अग्मत) प्राप्त होते हैं, इससे तुम लोग उनसे ऐश्वर्य्यवाले हूजिये॥५॥
भावार्थ
जो विद्वान् लोग जब वायु और विद्युत् का आलम्ब लेकर सूर्य्य की किरणों के समान आग्नेयादि अस्त्र, असि आदि शस्त्र और विमान आदि यानों को सिद्ध करते हैं, तब वे शत्रुओं को जीत राजा होकर सुखी होते हैं॥५॥
विषय
फिर ये किससे क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया गया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मेधाविनः येन मरुत्वता इन्द्रेण राजभिः आदित्येभिः च सह मदासो वो युष्मान् अग्मत प्राप्नुवन्ति भवन्तः च तैः श्रीमन्तः भवन्तु॥५॥
पदार्थ
हे (मेधाविनः)=बुद्धिमान् लोगों, (येन)=जैसे, (मरुत्वता) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तेन=जिसमें पवन से सम्बन्धित गुण विद्यमान हैं, (इन्द्रेण) विद्युता=बिजली, (राजभिः) राजयन्ते दीपयन्ते तैः=जो प्रकाशमान होते हैं उनसे, (आदित्येभिः) किरणैः=किरणों के सह=साथ, (च) पुनरर्थे=साथ, (मदासः) विद्यानन्दाः=विद्या के आनन्द, वो (वः) =जो, युष्मान्=तुम दोनों, (मेधाविनः)= बुद्धिमान् लोग, (युष्मान्)= तुम सब, (अग्मत) प्राप्नुवन्ति= प्राप्नुवन्ति=प्राप्त करते हैं, (भवन्तः)= आप लोग, (च) समुच्चये=और, (तैः)=उनके द्वारा, श्रीमन्तः=कीर्तिशाली भवन्तु=हों॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो विद्वान् लोग जब वायु और विद्युत् का आलम्बन लेकर सूर्य्य की किरणों के समान आग्नेय आदि शस्त्र और विमानों को सिद्ध करते हैं, तब वे राजा शत्रुओं को जीत होकर सुखी होते हैं॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मेधाविनः) बुद्धिमान् लोगों! (येन) जैसे (मरुत्वता) जिसमें पवन से सम्बन्धित गुण विद्यमान हैं, (इन्द्रेण) बिजली से (राजभिः) जो प्रकाशमान होते हैं, उनसे (च) और (आदित्येभिः) किरणों के (सह) साथ-साथ (मदासः) विद्या के आनन्द (वः) जो (युष्मान्) तुम सब (मेधाविनः) बुद्धिमान् लोग (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त करते हो (च) और (भवन्तः) आप लोग (तैः) उनके द्वारा (श्रीमन्तः) कीर्तिशाली (भवन्तु) हों॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सम्) सम्यगर्थे (वः) युष्मान् मेधाविनः (मदासः) विद्यानन्दाः। आज्जसेरसुग् इत्यसुक्। (अग्मत) प्राप्नुवन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्। मन्त्रे घसह्वरणश० इति च्लेर्लुक्, गमहनजनखन० (अष्टा०६.४.९८) इत्युपधालोपः, समो गम्यृच्छिभ्याम् (अष्टा०१.३.२९) इत्यात्मनेपदं च। (इन्द्रेण) विद्युता (च) समुच्चये (मरुत्वता) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तेन। अत्र सम्बन्धे मतुप्। (आदित्येभिः) किरणैः सह। बहुलं छन्दसि इति भिसः स्थान ऐसभावः। (च) पुनरर्थे (राजभिः) राजयन्ते दीपयन्ते तैः॥५॥
विषयः- पुनरिमे केन किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे मेधाविनो येन मरुत्वतेन्द्रेण राजभिरादित्येभिश्च सह मदासो वो युष्मानग्मत प्राप्नुवन्ति भवन्तश्च तैः श्रीमन्तो भवन्तु॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये विद्वांसो यदा वायुविद्युद्विद्यामाश्रित्य सूर्य्यकिरणैराग्नेयास्त्रादीनि शस्त्राणि यानानि च निष्पादयन्ति तदा ते शत्रून् जित्वा राजानः सन्तः सुखिनो भवन्तीति॥५॥
विषय
'मरुत्वान् इन्द्र' व ' राजा आदित्य'
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित ' पितरों को युवा बनाने के लिए यह आवश्यक है कि (वः) - तुम्हें (मदासः) - हर्ष के कारणभूत सोमकण (समग्मत) - प्राप्त हों , सोमकणों के साथ हमारा मेल हो । वस्तुतः उन्नतिमात्र के मूल में यह सोमकणों की रक्षा ही है । इसके बिना किसी भी प्रकार की उन्नति सम्भव नहीं ।
२. यह सोमकणों के साथ मेल हो कैसे? उसके लिए कहते हैं कि (इन्द्रेण च मरुत्वता) - मरुतोंवाले इन्द्र के द्वारा । इन्द्र उस पुरुष को कहते हैं जो इन्द्रियों का अधिष्ठाता है । इस इन्द्रियों के अधिष्ठातृत्व के लिए ही वह प्रशस्त प्राणों - [मरुतों] - वाला बना है । प्राणसाधना के बिना इन्द्रियाँ वशीभूत नहीं होती । इन्द्रियों के वशीभूत हुए बिना सोम की रक्षा भी सम्भव नहीं ।
३. इसके अतिरिक्त यह सोमकणों का मेल (आदित्येभिः च राजभिः) - देदीप्यमान आदित्यों से होता है । आदित्य वे हैं जो निरन्तर अपने अन्दर ज्ञान का ग्रहण करते हैं । ' प्रकृति' का ज्ञान प्राप्त करके वे वसु - उत्तम निवासवाले बनते हैं । ' प्रकृति+जीव' का ज्ञान प्राप्त करके ये रुद्र बनते हैं । ' रोरूयमाणो द्रवति' - निरन्तर अपने कर्तव्य - कार्यों की रट लगाते हुए उन्हें करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं और अब प्रभु का भी ज्ञान प्राप्त करके सभी को अपनी "मैं" में समाविष्ट करनेवाले ये ' आदित्य' बनते हैं । सूर्य के समान ज्ञान से चमकते हुए ये सूर्य के समान ही व्यवस्थित [regulated] जीवनवाले होते हैं और सोम की रक्षा करने में समर्थ होते हैं ।
४. ' मरुत्वान् इन्द्र' - प्राणसाधना करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष है और ' राजा आदित्य' = पराविद्या से दीप्त होनेवाला , व्यवस्थित जीवनवाला ज्ञानी पुरुष है । ये ही अपने साथ सोमकणों का संगम कर पाते हैं । सोम - रक्षा के मुख्य यही उपाय है - [क] प्राणसाधना द्वारा जितेन्द्रियता , [ख] व्यवस्थित जीवन द्वारा ज्ञान - प्राप्ति में लगे रहना ।
भावार्थ
भावार्थ - ' मरुत्वान् इन्द्र' तथा ' राजा आदित्य' बनकर हम अपने अन्दर सोमकणों की रक्षा करनेवाले बनें । इनके रक्षण से ही जीवन उल्लासमय होगा ।
विषय
शिल्पी जन ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों के ( मदासः ) आनन्द और हर्ष ( मरुत्वता इन्द्रेण च ) वायुओं सहित मेघ, उसके समान वीर सैनिकों और प्रजा पुरुषों से युक्त सेनापति के साथ और ( आदित्येभिः ) सूर्य की किरणों और उनके समान तेजस्वी ( राजभिः ) राजाओं के साथ ( अग्मत ) प्राप्त होते हैं । अर्थात्, जैसे सूर्य की किरणों का रस तृप्ति योग वायु युक्त विद्यत् और प्रखर किरणों के साथ है उसी प्रकार विद्वानों के विद्या-विलासादि आनन्द शिष्यों सहित आचार्य, प्रजाओं सहित राजा, और वीरों सहित सेनापति, और तेजस्वी राजाओं के साथ है। इसी प्रकार शिल्पियों के लिए भी सेनापति, राजा आदि का आश्रय आवश्यक है। वह भी 'इन्द्र' = विद्युदादि शिल्प करते हैं । इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—८ मेधातिथि: काणव ऋषिः ॥ देवता—ऋभवः ॥ छन्दः—३ विराड् गायत्री । ४ निचृद्गायत्री । ५,८ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री ॥ १, २, ६, ७ गायत्री ॥ षड्जः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान लोक वायू व विद्युतचे अवलंबन करून सूर्याच्या किरणांप्रमाणे आग्नेय इत्यादी अस्त्र शस्त्र व विमान इत्यादी याने तयार करतात ते शत्रूंना जिंकून राजे बनून सुखी होतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ye sagely scholars of science and divinity, dedicated and rejoicing together, march on with the winds, with the speed of lightning, and with the power and splendour of sun-beams.
Subject of the mantra
Then, what these should do with whom, has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (medhāvinaḥ)=intelligent people, (yena)=as, (marutvatā)= have properties related to wind, (indreṇa)=by electricity, (rājabhiḥ)=by those, who illuminate, (ca)=and, (ādityebhiḥ)=by Sunrays, (saha)=together, (madāsaḥ)=bliss of knowledge, (vaḥ)=which, (yuṣmān)=all of you, (medhāvinaḥ)=intelligent persons, (prāpnuvanti)=obtain, (ca)=and, (bhavantaḥ)=You people, (taiḥ)=by them, (śrīmantaḥ)=famous, (bhavantu)=be.
English Translation (K.K.V.)
O wise people! As having properties related to wind, those who illuminate by electricity and by the sunrays together. All of you intelligent people obtain that bliss of knowledge and by them you people be famous.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those learned people, when they, by taking support of wind and electricity, accomplish fire like the sunrays et cetera weapons and aircrafts, then they become happy by conquering the enemy kings.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should these Ribhus do and with what, is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wise men ! When you obtain the delight or bliss of knowledge with the study of electricity associated with the winds and with the bright rays of the sun, you become prosperous thereby.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मदास:) विद्यानन्दा: आज्जसेरसुक् इत्यसुक् । = The joys of knowledge. (इन्द्रेण) । = With electricity. (आदित्येभिः) सूर्यस्य किरणैः सह । = With the rays of the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When learned persons acquiring the knowledge of the air and electricity make Agneya and other weapon, and conveyances with the rays of the sun, they get victory over their enemies and enjoy happiness.
Translator's Notes
For the meaning of Indra as विद्युत् or electricity, please see Kaushikaki Brahmana 6.6. यदशनिरिन्द्रस्तेन ( कौषीतकी ब्रा० ) । स्तनयित्नुरेवेन्द्रः ॥ (शत० १९.६.३.९.)
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